ख़ानदानी खुशियाँ कैसे हासिल की जाएँ?

(फ़ैमिली काउंसलिंग गाइड बुक)

डॉ- नाज़नीन सआदत अनुवाद - ज़ाहिद ख़ालिद हामिदी

आह विषयसूची 22% ड़ विषय सूची आु्

. दो शब्द

2. भूमिका

3. वैवाहिक जीवन

* ख़ुशगवार शादीशुदा ज़िन्दगी () एक-दूसरे को सुनें (2) मुहब्बत का इज़हार और तारीफ़ करें (3) अहमियत का एहसास दिलाएँ (4) अपनी उम्मीदें और आरज़ूएँ साफ़-साफ़ बताएँ (5) गलतियाँ क़बूल करें, माफ़ी चाहें और ख़ुद को बदलें (6) गुस्से को कंट्रोल करें औरं ज़बान को काबू में रखें (7) कुछ साझा दिलचस्पियाँ और काम अपनाएँ (8) एक-दूसरे के लिए दुआ करें

# शादी से पहले काउंसलिंग

# शादीशुदा ज़िन्दगी के झगड़े और काउंसलिंग केस नम्बर-] केस नम्बर-2

4. खानदान

* नई दुल्हन का स्वागत

# बुजुर्गों के नफ़सियाती मसले बुजुर्गों के मसले नौजवानों का रोल बुजुर्गों का अपना रोल

#* मनफ़ी (नकारात्मक) किरदार से ख़ुद को बचाएँ औरतें और समाजी रिवायतें

ख़ानदानी खुशियाँ कैसे हासिल की जाएँ?

रिश्तों की बेहतरी और औरतें 5. बच्चे और उनकी तरबियत # हम्ल के मरहले और उसके नफ़सियाती तक़ाज़े हम्ल के दौरान होनेवाली नफ़सियाती तब्दीली पहले तीन महीने चौथे से छठा महीना सातवें से नवाँ महीना माँ की नफ़सियाती सेहत का बच्चे पर असर हम्ल के ताल्लुक़ से मुसबत (सकारात्मक) रवैया हामिला (गर्भवती) औरत के साथ अच्छा रवैया हामिला (गर्भवती) औरत और पाकीज़ा दीनी माहौल # बच्चे क्या चाहते हैं? बच्चों का अपने लिए फ़ुरसत का कुछ वक्‍त खेल के वकृत और तख़लीक़ी (रचनात्मक) खेल मेहरबानी करके मेरी सुनिए माँ-बाप के झगड़े मुहब्बत का इज़हार भी करें हमें अपने ख़ाबों को पूरा करने का मौक़ा दीजिए # बच्चा खाना क्‍यों नहीं खाता? बच्चे के खाना खाने की वजहें कुछ करने के काम () अपने हाथ से खाने का मौक़ा दें (2) दस्तरख़ान पर साथ बिठाएँ (3) बच्चे की पसन्द का लिहाज़ करें (4) कई-कई वक्त खिलाएँ बच्चे के खाने की क़्िस्में सिर्फ़ खिलाना नहीं खाना सिखाना भी मक़सद हो # नौउम्र लड़कियों के मसले

9 के ख़ानदानी बानदानी खुशियों कैसे हासिल की जाएँ?

() जिस्मानी बनावट (2) ख़ुद-एतिमादी और इज़्जुते-नफ़्स (3) शर्म हया और इस्लामी रहन-सहन (4) दोस्तियाँ और इंटरनेट (5) सेहतमन्द काम (6) दोस्त और रोल मॉडल बनिए

* नौउम्र लड़कों के मसले नौउम्रों की तरबियत (0) नौउम्नी की नफ़सियात को समझिए (2) बच्चों के दोस्त बनिए (3) यह समझ हो कि किन बातों से रोकना है और

किन बातों को नज़रन्दाज़ करना है (4) उम्मीदों को वाज़ेह रखिए (5) बच्चे के दोस्तों को जानिए और उनके दोस्त बनिए (6) बच्चे की प्राइवेसी के एहतिराम और उसपर निगाह रखने में मुनासिब बैलेंस रखिए

ख़तरे की अलामतें ख़ास तवज्जोह चाहनेवाले काम () हया शर्म (2) लड़के-लड़कियों का आपस में ताल्लुक़ (3) वक्त का बेहतरीन इस्तेमाल (4) अच्छी सोच (5) खुद-एतिमादी (6) तवज्जोह (70०४5) (7) ख़ुद का एहतिराम (8) अच्छी आदतें

# माँ-बाप से बद-सुलूकी इस रुझान की अलामतें

ख़ानदानी खुशियाँ कैसे हासिल की जाएँ?

29

इस रुझान की वजहें क्या हैं? 36

इस रुझान की रोकथाम और इलाज 40 बच्चों पर तलाक़ के असरातं और उनकी हिफ़ाज़त 44 अलग-अलग उम्र के बच्चों पर तलाक़ के असरात 47 बुरे असर से बचाने की तददबीरें 49 6. काउंसलिंग ]54 #* काउंसलिंग क्या, क्‍यों और कैसे? 54 नफ़सियाती बीमारियाँ क्‍या हैं? 55 (7) सेहत की ख़राबी या बीमारी 56 (2) नफ़सियाती बीमारी 57 (3) बेहतरीन ताल्लुक़ात के लिए [57 (4) लत (4448०४०४) 57 (5) किसी अपने को खोने का ग़म (860९8ए८एशा) 57 (6) सताने का अमल (80 ज़ाड) 58 काउंसलिंग क्‍या है? 58 () साइकोथेरेपी 58 (2) काउंसलिंग 59 (3) कोचिंग 59 काउंसलिंग कैसे की जाती है? 60 आमने-सामने (778०९ 7१8००) काउंसलिंग ]62 टेलीकाउंसलिंग ([७०००णा5थ॥गह्) 862.. ऑनलाइन (0॥9॥7०) सेशन 63

नफ़सियाती मसलों के हल के मुख़्तलिफ़ अप्रोच और इस्लाम. 65 # फ़ैमली काउंसलिंग और झगड़ों के हल में औरत का रोल 67

काउंसलिंग की ज़रूरत कब पेश आती है? 69 बच्चों की काउंसलिंग 70 मिया-बीवी के झगड़ों में काउंसलिंग है| परेशानियों और मसलों में काउंसलिंग 79

जय कट ख़ानदानी वानदानी खुशियां केसे हासिल की जाएँ?

काउंसलिंग नहीं कोचिंग ]75

# नफ़सियाती बीमारियाँ और उनकी वजहें 75 ()) आसाबी नशो-नुमा से मुताल्लिक़ बीमारियाँ (लप्रा०06०एशकृणथानों [980025) [7 -ज़ेहन की कमी (क्‍ल्‍॥00००79 7580४॥09) 77 -मुवासलाती बीमारियाँ (007प्रांध्बांणा 9500०७)..._ 77 -ऑटिज़्म (8परंञा) 78 -ए.डी.एच.डी- (46(लाएंणा 0लीणा छफ़॒नबणाशं( 79500 075) ]78

(2) दो कुतबियत (9००) और उससे मुताल्लिक़ बीमारियाँ . 78 (8) बेचैनी (४४०५) और उसके मुताल्लिक़ बीमारियाँ ]79 (4) सदमा (878) या तनाव (8४७७७) से मुताल्लिक़ बीमारियाँ. 80 (5) लाताल्लुक़ी से मुताल्लिक़ बीमारियाँ ()5504रए८)5०१७७).. 80 )

(6) खुराक से मुताल्लिक़ बीमारियाँ (84078 9500७) ]8] (४) नींद से मुताल्लिक़ बीमारियाँ (8००ए 778076०:8) 82 8) तल या नशा (890ालांणा) 83

( (9) आसाबी इदराकी बीमारियाँ (४८एा०००४४४४०98048७).. 83 (0) शस्क्रियत के मुताल्लिक़ बीमारियाँ (0७5०0का 50025)... 84

नफ़सियाती बीमारियों की वजहें 84 * कैरियर काउंसलिंग 86 कैरियर काउंसलिंग की अहमियत ]87 कैरियर गाइडेंस कैसे मददगार साबित होता है? ]87 हक़ीक़ी दिलचस्पी (078 7८768) 88 खानदानी असरात (ए्वाग्मोज ॥ीएथ००) ]88 लियाक़त (७700768) 89 शख्सियत (?७5णा०॥५) 89 कैरियर काउंसलिंग का तरीक़ा 89 कैरियर काउंसलिंग और नफ़सियाती मामले और मसले 90 कैरियर गाइडेंस में माँ-बाप का रोल 99 कैरियर काउंसलिंग के दौरान बच्चे का रोल 94

ख़ानदानी खुशियाँ कैसे हासिल की जाएँ?

विसमिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम (अल्लाह के नाम से जो बड़ा मेहरबान, निहायत रहमवाला है

दो शब्द

समाज में कई ख़ानदान (परिवार) होते हैं। अगर ख़ानदान ख़ुशगवार होगा, उसके लोग मिल-जुलकर हँसी-खुशी ज़िन्दगी गुज़ारेंगे और उनके बीच मुहब्बत और प्यार पाया जाएगा तो उसके असरात (प्रभाव) समाज पर पड़ेंगे और एक ख़ुशगवार, पाकीज़ा और मिसाली समाज क़ायम होगा, लेकिन अगर ख़ानदान बिखरा हुआ होगा, उसके लोगों के दिल एक-दूसरे से कटे-कटे होंगे और उनके बीच मुहब्बत प्यार नहीं होगा तो उसके असरात भी समाज पर पड़ेंगे और वह फ़ितना फ़साद, भ्रष्टाचार और अनारकी (अराजकता) का शिकार हो जाएगा।

मौजूदा दौर में समाज के बिगाड़ और बिखराव की वजह यह है कि खानदान के ताने-बाने बिखर रहे हैं और ख़ानदान के लोगों के बीच गर्मजोशी बाक़ी नहीं रही है। मियाँ-बीवी के बीच प्यार-मुहब्बत के बजाए शिकायतें पैदा हो रही हैं और एक-दूसरे के बीच नफ़रत बढ़ रही है। ससुराली रिश्तेदारों में बेहतर सुलूक की कमी है। सास-ससुर घर में आनेवाली नई बहू का प्यार-मुहब्बत से स्वागत नहीं करते और बहू भी सास-ससुर का सम्मान नहीं करती। शौहर अपने ससुराल के क़रीबी रिश्तेदारों के साथ इज़्ज़त एहतिराम का मामला नहीं करता और बीवी के ताल्लुक़ात भी ससुराल के दूसरे लोगों के साथ अच्छे नहीं रहते। माँ-बाप औलाद की सही परवरिश और दीनी अख़लाक़ी तरबियत से गाफ़िल रहते हैं और औलाद भी माँ-बाप के - बुढ़ापे का सहारा नहीं बनती, बल्कि अपनी ही दुनिया में मस्त रहती है। खानदान के तमाम लोगों पर ख़ुद-गरज़ी हावी रहती है हर आदमी की नज़र अपने हुकूक़ (अधिकारों) पर रहती है, दूसरों के जो हुक्रूक़ उनपर लागू होते हैं उनको अदा करने की उसे बिलकुल चिन्ता नहीं होती। इस सूरतेहाल ने

खानदानी खुशियाँ कैसे हासिल की जाएं? |.)

खानदान की मज़बूत बुनियादों को हिलाकर रख दिया है जिससे उसकी मज़बूती और पाकीज़गी बाक़ी नहीं रही उसके असरात समाज पर पड़े हैं और वह फ़ित्तना फ़साद, अखलाक़ी गिरावट, हुकूक़ की अनदेखी और बुराइयों का केन्द्र बन गया है। आमतौर पर ख़ानदान के लोगों के बीच और मतभेदों की शुरुआत मामूली बातों से होती है। मिज़ाजों के मतभेद को बरदाश्त किया जाए तो वे बढ़कर झगड़े की सूरत इस्तियार कर लेते हैं। यहाँ तक कि साथ में गुज़ारा मुमकिन नहीं रह जाता और बात अलग होने तक जा पहुँचती है। इसलिए अक्लमन्दी यह है कि शुरुआत ही में मतभेद के साथ मिल-जुलकर रहने के आदाब सिखाए जाएँ ख़ानदानी ज़िन्दगी में कुरआन ने इसी की तालीम नसीहत की है। वह शौहर को हुक्म देता है कि बीवी के साथ भले तरीक़े से पेश आए और उसका कोई रवैया उसे नागवार गुज़रे तो उससे बद-दिल हो जाए, बल्कि उसकी खूबियों पर नज़र रखे, (कुरआन, सूरा-4 निसा, आयत-9)। वह बीवी को ताकीद करता है कि उसका रवैया हमेशा शौहर की इताअत का होना चाहिए। वह माँ-बाप को हुक्म देता है कि औलाद की सही तरीक़े से परवरिश और दीनी अख़लाक़ी तरबियत पर ध्यान दें और औलाद को पाबन्द करता है कि उनका रवैया माँ-बाप के साथ हमेशा फ़रमाँबरदारी और ख़िदमत का होना चाहिए। उसने रिश्ता जोड़ने पर बहुत ज़ोर दिया है और रिश्तों का लिहाज़ रखने की ताकीद की है। मतभेद अगर सिर उभारने लगें तो कुरआन की तालीम (शिक्षा) यह है कि पहले मामले से ताल्लुक़ रखनेवाले लोग ख़ुद ही हल करने की कोशिश करें| लेकिन अगर वे इसमें कामयाब हो सकें तो दूसरे लोग अपना रोल निभाएँ। कुरआन सुलह-सफ़ाई कों पसन्द करता है और आपसी मतभेदों को पसन्द नहीं कंरता। उसके नज़ंदीक मियाँ-बीवी के बीच रंजिश और नफ़रत को दूर करने में खानदान के बड़ों को अपना बेहतर रोल अदा करना चाहिए। (कुरआन, सूरा-8 निसा, आयत-35) अज़दवाजी (वैवाहिक) और पारिवारिक मसलों और उलंझनों को हल करने, ख़ानदान के लोगों के आपसी मतभेदों को दूर करने और उनके बीच

एड बम ख़ानदानी व्वानदानी खुशियों कैसे हासिल की जाएँ?

मेल-जोल और ख़ुशगवारी पैदा करने की कोशिश का नाम “काउंसलिंग' है। 'यह आज के दौर का एक अहम फ़न (कला) बन गया है। इसके अलग- अलग दर्जों (स्तरों) के कोर्स तैयार किए गए हैं, जिनसे गुज़रने के बाद सर्टिफ़िकेट और डिगरियाँ दी जाती हैं। उलझनों और लड़ाई-झगड़ों के शिकार (विवादित) लोग माहिर काउंसलर को अपने मसले बताते हैं और उसका हल पाते हैं।

काउंसलिंग के विषय पर बहुत कम किताबें पाई जाती हैं। उर्दू/हिन्दी में तो ऐसी किताबें मौजूद ही नहीं हैं जिनमें मियाँ-लीवी और ख़ानदानी (पारिवारिक) ज़िन्दगी के मसलों के हल के सिलसिले में तकनीकी बुनियादों पर रहनुमाई की गई हो | ज़रूरत है कि इस कमी को दूर किया जाए और काउंसलिंग के विषय पर आसान भाषा में फ़ायदेंमन्द किताबें छापी जाएँ। यह किताब इसी ज़रूरत को पूरा करने की एक क़ाबिले-क़द्र कोशिश है।

इस किताब की लेखिका डॉ. नाज़नीन सआदत साहिबा ने यूँ तो अपनी पढ़ाई-लिखाई साइंस (विज्ञान) से की है, उन्होंने एस,आर-टी,एम- यूनिवर्सिटी नांदेड़, महाराष्ट्र से पर्यावरण विंज्ञान (ग्रशाणा॥गथांधों 8संथा००) में |४.४०. और 79.0 की है। इसके बाद इसी विषय को 2008 ई. से पढ़ा (अध्यापन कर) रही हैं और मज़मून (लेख) और किताबें लिखने का काम भी किया है। लेकिन उनको ख़ास दिलचस्पी काउंसलिंग से है। इसी दिलचस्पी की वजह से उन्होंने इसके कई कोर्स किए हैं और अब अमली तौर से इस मैदान क्ष्षेत्र) में लगी हुई हैं और लोगों की काउंसलिंग कर रही हैं। इस विषय पर उर्दू में लिखना उन्होंने कुछ साल पहले से शुरू किया था। उनके लेख “'हिजाबे-इस्लामी” (नई दिल्ली) नामी मैगज़ीन में छपते रहे हैं। उन ही लेखों को अब किताबी रूप में छापा जा रहा है।

इस किताब को चार अध्याय में बाँठा गया है। पहले अध्याय में उन

विषयों को रखा गया है जो शादीशुदा ज़िन्दगी के बारे में हैं। उनमें शादी से पहले की उलझनों को दूर किया गया है। शादीशुदा ज़िन्दगी को ख़ुशगवार कैसे बनाया जाए? इसकी तदबीरें बताई गई हैं, शौहर-बीवी के बीच पैदा होनेवाले झगड़े कैसे दूर किए जाएँ? इस बारे में बताया गया है। दूसरे अध

ख़ानदानी खुशियाँ कैसे हासिल कीजाएं/...................रररः

याय में ख़ानदान के लोगों के बीच रिश्तों की बारीकियों पर बात की गई है, उनके नफ़सियाती (मनोवैज्ञानिक) मसले सुलझाए गए हैं और लड़ाई-झगड़े होने पर उनको दूर करने के उपाय बताए गए हैं। तीसरे अध्याय का शीर्षक “बच्चों की तरबियत” है। इसमें हम्ल (गर्भ) के समय औरतों की नफ़सियात, छोटे बच्चों की उलझनों, बड़े लड़के और लड़कियों के मसले और बच्चों की अपने माँ-बाप से बदसुलूकी की वजहों से बहस की गई है। चौथा अध्याय काउंसलिंग पर है। इसमें काउंसलिंग के विषय के बारे में बताने के साथ-साथ उसकी ज़रूरत अहमियत और तरीक़ा बताया गया है और कैरियर काउंसलिंग पर भी रौशनी डाली गई है।

यह किताब काउंसलिंग के विषय पर एक क़ीमती पेशकश है। उम्मीद है, काउंसलिंग के क्षेत्र में काम करनेवाले मर्द, औरतें और इस विषय से दिलचस्पी रखनेवाले आम लोग इससे फ़ायदा उठाएँगे! अल्लाह लेखिका को और ज़्यादा ख़िदमत की तौफ़ीक़ दे!! आमीन!!!

-मुहम्मद रजीउल-इस्लाम नदवी सेक्रेटरी शोबा-ए-इस्लामी मुआशरा जमाअते-इस्लामी हिन्द

9 कक ख़ानदानी खुशियों केसे हासिल की जाएँ?

भूमिका

ख़ानदान समाज की इकाई और तहज़ीब तमहुन (संस्कृति और सभ्यता) की बुनियाद होता है। गुज़रे हुए ज़माने की शानदार रिवायतें ख़ानदान ही के ज़रिए महफ़ूज़ रहती और नई नसलों में मुन्तक़िल हो जाती हैं। यहीं से लोगों को कोशिश और जिद्दो-जहद करने का जज़बा भी मिलता है। अमल के क्षेत्र में हौसले भी बढ़ते हैं और वह जज़बाती सुकून भी मिलता है जो बड़े-से-बड़े चैलेंज का मुक़ाबला आसान बना देता है और उसी के अन्दर आइन्दा के लिए नई नस्‍्लें तैयार होती हैं। मज़बूत समाज और शानदार संस्कृति और सभ्यता की पहली ईंट ख़ानदान ही के इदारे में रखी जाती है। इसलिए ख़ुशी और सुकून से भरा ख़ानदान इनसानी समाज के वर्तमान के लिए भी ज़रूरी है और भविष्य के लिए भी, बल्कि माज़ी (अतीत) की सुरक्षा के लिए भी। यह एक-एक आदमी के लिए भी ज़रूरी है और बस्ती, मुहल्ला, समाज, देश, तमहुन (संस्कृति) और पूरी इनसानी नस्ल के लोगों और इनसानी इतिहास के लिए भी। यही वजह है कि इस्लाम ने ख़ानदानी ज़िन्दगी को बड़ी अहमियत दी है। रिश्तेदारों और क़रीबी लोगों से अच्छे सुलूक, रिश्ते को जोड़े रखना और एहसान को कुरआन की अख़लाक़ी तालीम में बुनियादी अहमियत हासिल है। यह इस्लाम की बुनियादी क्ढ्ों में से एक है। कुरआन का जो हिस्सा अहकाम के बारे में है, उसमें सबसे ज़्यादा तफ़सील ख़ानदानी ज़िन्दगी के ही बारे में है। अगर इनपर अमल किया जाए तो ख़ानदानी ज़िन्दगी सुकून, इत्मीनान और ख़ुशी की जगह बन सकती है। लेकिन महसूस होता है कि इस वक्त ख़ानदानी मज़बूती के सामने कई तरह के चैलेंज हैं और मुस्लिम ख़ानदानों में भी बड़ा बिखराव देखने को मिलता है।

हम 77१20 77777” अं अंकल आर बए।

खानदानों को मज़बूत करने के लिए ज़रूरी है कि कुरआन सुन्नत की स्पष्ट पारिवारिक शिक्षाओं की तरफ़. लोगों को ध्यान दिलाया जाए और मसलों को हल करने के लिए कुरआन और सुन्नत (हदीस) की रौशनी में काउंसलिंग और कोचिंग की नई मालूमात और तकनीकों से भी फ़ायदा उठाया जाए

इसी ज़रूरत को देखते हुए मैंने अपने असल मैदान (माहौलियाती साइंस) के साथ फ़ैमली काउंसलिंग और कोचिंग के ट्रेनिंग कोर्स पूरे करते हुए इस मैदान में क़दम रखा था। कुछ साल पहले रिसाला हिजाबे-इस्लामी के एडीटर जनाब शमशाद हुसैन फ़लाही की पहल और गुज़ारिश पर अपने तजरिबे लिखने शुरू किए थे। मैं उनकी शुक्रगुज़ार हूँ कि उनका बार-बार फ़ॉलोअप और हिम्मत दिलाना इन मज़मूनों के तैयार होने की अहमतरीन वजह बना।

इन मज़मूनों (लेखों) में से कई तो उन सच्ची घटनाओं और तजरिबों की बुनियाद पर हैं जो लोगों और ख़ानदानों की काउंसलिंग करते हुए सामने आए मसलों को हल करने की कोशिश करते हुए मैं कुरआन सुन्नत की तालीमात को सामने रखने की कोशिश करती हूँ और उसी रौशनी में मनोविज्ञान (इल्मे-नफ़सियात) और एन.एल-पी. (घ०४7०- #ग8प58० 00- 8/27॥7॥8) वगैरा के /तसव्वुरात और तकनीकों से भी फ़ायदा हासिल करती हूँ। मज़मूनों में भी इसी दृष्टिकोण (५9७97०४०॥) की झलक है। कोशिश की गई है कि मज़मूनों में आसान ज़बान (भाषा) इस्तेमाल की जाए।

काउंसलिंग का काम ख़ानदान के हर आदमी का काम है। हमारी तहज़ीबी रिवायात में ख़ानदान की बड़ी बूढ़ियों ने हमेशा सलाहकार, काउंसलर, कोच और मेहरबान ट्रबल शूटर (मसलों का हल बतानेवाले) का रोल अदा किया है। माएँ अपनी बेटियों के लिए हमेशा क़ाबिल कोच बनी रहीं। हर खानदान में बड़ी उम्र की ऐसी तजरिबेकार औरतें हुआ करती थीं जो आनेवाली बहुओं और जानेवाली बेटियों को ख़ुशगवार ज़िन्दगी के राज़ भी सिखाती थीं और पेचीदा ख़ानदानी गुत्थियों और उलझनों को हल भी करती थीं। शहरी ज़िन्दगी की हलचल और न्यूक्लियर ख़ानदानों (सिर्फ़

हा पी बा ख़ानदानी व्ानदानी खुशियों कैसे हासिल की जाएँ?

माँ-बाप और बच्चेवाले ख़ानदान) के रिवाज ने इस रिवायती रोल को कमज़ोर कर दिया है। ख़ानदानी ज़िन्दगी को इस वक्त पेश आनेवाली परेशानियों की एक वजह यह भी है। अगर हमारी औरतें काउंसलिंग कोचिंग के आसान तरीक़ों को समझ लें और इस्लाम की बुनियादी तालीमात की समझ हासिल कर लें तो वे इस रिवायती रोल को ज़्यादा बेहतर तरीक़े से फिर से ज़िन्दगी बख्श सकती हैं। इन मज़मूनों (लेखों) में मेरी मुख़ातब ऐसी ही पढ़ी-लिखी औरतें हैं जो बगैर किसी प्रोफ़ेश्नल ट्रेनिंग के अपने-अपने ख़ानदानों में और अपने पास-पड़ोस में यह रोल अदा कर सकती हैं। इसलिए इन मज़मूनों में इल्मी इस्तिलाहों और तकनीकी तफ़सीलों से बचते हुए आसान ज़बान में मोटी-मोटी बातें बयान करने की कोशिश की गई है।

मैं उन तमाम औरतों की शुक्रगुज़ार हूँ जिनकी ज़िन्दगियों की कहानियों ने मेरी समझ और तजरिबे भी बढ़ाए और इन मज़मूनों के लिए मेटर भी मुहैया किया। अल्लाह उन सबकी.ज़िन्दगियों को और उनके ख़ानदानों को हर तरह के मसलों से नजात दे और ख़ुशियाँ अता फ़रमाए।

मैं अपने शौहर जनाब सैयद सआदतुल्लाह हुमैनी की शुक्रगुज़ार हूँ कि वे हर क़दम पर मेरा हौसला बढ़ाते रहे। उनकी लगातार रहनुमाई और बेशुमार सुधारों के बगैर मेरे लिए अपने टूटे-फूटे और बिखरे हुए ख़यालों को इस शक्ल में पेश करना मुमकिन नहीं था।

मैं उन तमाम लोगों और इदारों की एहसानमन्द हूँ जिनसे मैंने नफ़सियात (मनोविज्ञान), फ़ैमिली थेरेपी, चिकित्सा, काउंसलिंग और कोचिंग के अलग-अलग नज़रिये और तरीके सीखे जनाब मौलाना मुहम्मद रज़ीयुल इस्लाम नदवी साहब उन आलिमों में से हैं, जिनकी तहरीरों से ख़ानदानी ज़िन्दगी के बारें में इस्लामी तसव्वुरात को समझने में बहुत मदद मिली। मैं मौलाना की बेहद ममनून हूँ कि उन्होंने मेरी इस .छोटी-सी कोशिश पर, जो किताब की शक्ल में पेश है, प्रस्तावना लिखकर मेरी बहुत इज़्जृत अफ़ज़ाई फ़रमाई।

मैं अपने माँ-बाप और ख़ानदान के तमाम लोगों की शुक्रगुज़ार हूँ

ख़ानदानी खुशियों कैसे हासिल की जाएं?

जिनकी मदद हर क़दम पर मिलती रही और अपने दोनों प्यारे बेटों का भी शुक्रिया अदा करती हूँ जिनके सब्र और मदद के बगैर इस नए मैदान में हुनर आज़माई मुमकिन थी और जिनकी प्यारी शख्सियतों ने बच्चों की नफ़सियात के दिलचस्प पहलुओं को समझने में मदद दी।

अल्लाह इन सब एहसान करनेवालों को अच्छा बदला दे! आमीन!!

पाठकों के फ़ायदेमन्द मश्वरों और तब्तिरों का स्वागत है। अल्लाह इस छोटी-सी कोशिश को क़बूल फ़रमाए और इसे ख़ानदानों में खुशी मसर्रत और सुकून इत्मीनान की फ़ज़ा को आम करने का ज़रिआ बनाए! आमीन!!

-डॉ० नाजुनीन सआदत हुमायूँ नगर, हैदराबाद

* झू र[<[<ौ ख़ानदानी ब्ानदानी खुशियों कैसे हासिल की जाएँ?

वैवाहिक जीवन

खुशगवार शादीशुदा ज़िन्दगी

शौहर-बीवी के रिश्ते को अल्लाह ने अपनी एक निशानी बताया है। यह खूबसूरत रिश्ता अल्लाह की बहुत बड़ी नेमत है। इस रिश्ते के ज़रिए अजनबी मर्द और औरत एक-दूसरे से जुड़े होते हैं और फिर एक-दूसरे के लिए ज़िन्दगी की बहुत-सी खुशियों का ज़रिआ बन जाते हैं। कुरआंन कहता है कि वे एक-दूसरे को सुकून पहुँचानेवाले हो जाते हैं-- “और उसकी निशानियों में से यह है कि उसने तुम्हारे लिए तुम्हारी ही जिंस से जोड़े बनाए, ताकि तुम उनके पास सुकून हासिल करो, और तुम्हारे बीच मुहब्बत और रहमत पैदा कर दी |” (कुरआन, सूरा-30 रूम, आयत-2) वे एक-दूसरे का लिबास बन जाते हैं। बेतकल्लुफ़ और इन्तिहाई भरोसेमन्द दोस्त, बल्कि ज़िन्दगी के शरीक और ज़िन्दगी के सफ़र में एक- दूसरे के साथी बन जाते हैं एक-दूसरे के हमराज़, दुख-सुख के साथी, हमदर्द और साझेदार हो जाते हैं। उनके लिए एक-दूसरे का वुजूद ज़िन्दगी की बेशुमार खुशियों का सरचश्मा (स्रोत) बन जाता है। उनकी ज़िन्दगियाँ बड़ी गहराई से एक-दूसरे से जुड़ जाती हैं, इस हद तक कि वे एक-दूसरे के वुजूद का हिस्सा बन जाते हैं। वे एक-दूसरे के पूरक (8८0० प॥॥09 बन जाते हैं। एक-दूसरे की ख़ुशी उनके लिए ज़िन्दगी की बहुत बड़ी दिलचस्पी बन जाती है और यही दिलचस्पी उन्हें ज़िन्दगी के कारोबार में सरगर्म और तैयार रखने का सबब भी बनती है। एक-दूसरे के लिए क़ुरबानियाँ देने और तकलीफ़ उठाने में उन्हें मज़ा आने लगता है। फिर अल्लाह इसी रिश्ते से दोनों को औलाद देता है। उनका ख़ानदान वुजूद में आता है, जो उनके लिए खुशियों का घर होता है। नन्‍्हे-मुन्ने मासूम बच्चों की ज़िम्मेदारियाँ दोनों को और

ख़ानदानी खुशियाँ कैसे हासिल की जाएँ?

मज़बूती से जोड़ देते हैं। एक-दूसरे पर मुहब्बत लुटाने के साथ-साथ अब दोनों मिलकर बच्चों पर मुहब्बत लुटाने लगते हैं।

यह सिलसिला सदियों से चल रहा है और कायनात के पैदा करनेवाले की कुदरत का सबसे बड़ा कारनामा और निहायत ख़ूबसूरत नमूना है, इसी लिए कुरआन ने इसे निशानी क़रार दिया है। यह रिश्ता इनसान की फ़ितरी ज़रूरत है। यह फ़ितरी ज़रूरत सिर्फ़ क़ानूनी रिश्ते से पूरी नहीं होती और ही सिर्फ़ इसके जिंसी पहलू से | इस रिश्ते के तमाम जज़बाती, नफ़सियाती, अख़लाक़ी, समाजी और तहज़ीबी पहलू इनसान की फ़ितरी ज़रूरत हैं, यानी यह इनसान की फ़ितरी ज़रूरत है कि उसका शौहर या उसकी बीवी उसंसे बेपनाह मुहब्बत करनेवाली हो यह फ़ितरी ज़रूरत है कि दोनों को एक-दूसरे पर भरपूर भरोसा हो। यह फ़ितरी ज़रूरत है कि दोनों एक-दूसरे के लिए सुकून का सबब हों।

एक इनसान को शादीशुदा ज़िन्दगी की खुशियाँ और सुकून हासिल हो तो यह उसके लिए बहुत बड़ी नेमत होती है। अल्लाह के रसूल मुहम्मद (सल्ल.) ने इसे दुनिया की सबसे बड़ी नेमत क़रार दिया है-

“दुनिया की बेहतरीन नेमत नेक बीवी है।” (हदीस : मुस्लिम)

यह नेमत इनसान को जज़बाती सुख-शान्ति से मालामाल करती है। जिस मर्द या औरत को यह नेमत हासिल हो, उसकी शख््सियत में एतिमाद, हौसला, उमंग, जोश, वलवला और हुस्न जाता है। वह आगे बढ़ने, तरक्क़ी करने और लोगों को फ़ायदा पहुँचाने के मुसबत (सकारात्मक) जज़बात से और उनके लिए ज़रूरी ताक़त से मालामाल हो जाता है। ज़िन्दगी के अलग-अलग शोबों (विभागों) में उसकी काम करने की सलाहियत बेहतर हो जाती है। शौहर और बीवी में एक-दूसरे के साथ मुहब्बत और मेल-जोल हो तो घर भी सुकून का गहवारा बनता है। बच्चों को ख़ुशगवार माहौल मिलता है। ऐसे माँ-बाप के बच्चे नफ़सियाती लिहाज़ से मज़बूत और अच्छी जज़बाती ज़िहानत के मात्रिक होते हैं।

मियाँ-बीवी की मुहब्बत उनके पूरे खानदान पर असर डालती है। पूरे

484] ख़ानदानी खुशियाँ कैसे हासिल की जाएँ?

खानदान में वे मुसबत (सकारात्मक) तवानाई (ऊर्जा) फैलाने का ज़रिआ बनते हैं। पूरा समाज इन जैसे जोड़ों से सेहतमन्द बनता है। देखने में यह आया है कि खुशियों से भरे ख़ानदानों के बगैर समाज और तहज़ीब की तरकक़ी भी मुमकिन नहीं है। ख़ानदानी खुशी सुकून इनसानों के मनफ़ी (नकारात्मक) जज़बों जैसे रंज ग़म, गुस्सा, मायूसी नाउम्मीदी और बेहौसलगी कम-हिम्मत वगैरा को कम करने में मदद देता है। यही जज़बे समाज में बद-अम्नी लोगों में दूरियाँ, फ़ितना फ़साद और ज़ुल्म जुर्म को बढ़ावा देने का सबब बनते हैं। इन मनफ़ी (नकारात्मक) जज़बों पर कंट्रोल हो तो इनसानों की ताक़त भले और फ़ायदेमन्द कामों में लगती है और इस तरह समाज खुशहाल बनता है।

खुशगवार शादीशुदा ज़िन्दगी के लिए निकाह के शुरुआती कुछ साल बहुत अहम और ख़ास होते हैं। मर्द और औरत दोनों के लिए शादी एक नया तजरिबा होता है। लड़की अपना घर, माँ-बाप, बहन-भाई सबको छोड़कर एक नए घर में बस्ती है तो वह बहुत सारी ज़ेहनी तब्दीलियों से गुज़रती है। दूसरी तरफ़ लड़का जो अब तक एक आज़ाद, लाउबाली और बेफ़िक्री की ज़िन्दगी गुज़ार रहा होता है, अचानक एक तब्दीली से गुज़रता है। वह अचानक बहुत सारी नई बन्दिशों और ज़िम्मेदारियों में जकड़ जाता है। माँ- बाप और घर के दूसरे लोगों की उसपर कड़ी नज़रें होती हैं। वे उसकी पहली और बाद की ज़िन्दगी की तुलना करते हैं।

इस मरहले में दुल्हा और दुल्हन दोनों को निहायत समझदारी से काम लेने की ज़रूरत पड़ती है। उनके अन्दर यह समझदारी हो तो उनकी ज़िन्दगी खुशियों का गहवारा बन जाती है और वे सारी ख़ुशियाँ और फ़ायदे उन्हें हासिल होते हैं जिनका ऊपर ज़िक्र किया गया है। अगर ऐसा हो सका तो फिर झगड़े शुरू हो जाते हैं और ज़िन्दगी जहन्नम बन जाती है।

इस किताब में मैं उन जोड़ों के बारे में बात करूँगी जिनके बीच गम्भीर झगड़े तो नहीं हैं, लेकिन शादीशुदा ज़िन्दगी की भरपूर खुशियाँ भी नहीं हैं। अकसर यह देखने में आया है कि बहुत सारे जोड़े शादी के बाद एक या दो साल ही पुरजोश और ख़ुशियों से भरी ज़िन्दगी गुज़ार पाते हैं। उसके बाद

खानदानी खुशियों कैसे हातिल की जाएं?

उनकी शादीशुदा ज़िन्दगी किसी तनाव या झगड़े का शिकार तो नहीं होती, लेकिन उसमें गर्मजोशी और वलवला भी बाक़ी नहीं रहता। ज़िन्दगी के झमेलों में वे ऐसा उलझ जाते हैं कि उन्हें एक-दूसरे में कोई दिलचस्पी नज़र ही नहीं आती | बस वे एक-साथ रहते हैं और ज़िन्दगी का बोझ उतारते और ज़िम्मेदारियाँ अदा करते रहते हैं। ऐसे पढ़े-लिखे, खुशहाल और मुहज़्ज़ब (सभ्य) जोड़े भी मुझे मिलते हैं जो शादी के कुछ सालों बाद ही भरी जवानी में यह कहते नज़र आते हैं कि “अब ज़िन्दगी में कोई मज़ा ही नहीं रहा, बस बच्चों के लिए जीना है।” इन नौजवान लड़कों और लड़कियों से ऐसी बातें सुनकर बहुत अफ़सोस होता है। शादीशुदा रिश्ते की गर्ममोशी की ज़रूरत इनसान को हर उम्र में होती है अगर ये लोग समझदारी से ज़िन्दगी गुज़ारें, इस्लामी शरीअत की पाबन्दी करें, पैगम्बर मुहम्मद (सल्ल.) की शादीशुदा ज़िन्दगी के तरीक़े को सामने रखें और एक-दूसरे की नफ़सियात का लिहाज़ रखें तो 'इन शाअल्लाह' उम्र के साथ-साथ उनका रिश्ता और मज़बूत और मुहब्बत ज़िन्दगी से भरपूर बन सकता है और बुढ़ापे की आख़िरी उम्र तक वे शादीशुदा ज़िन्दगी की जज़बाती खुशियों से फ़ायदा उठा सकते हैं। चुनाँचे ऐसे जोड़े भी मौजूद हैं जिनकी शादी को पचास-साठ साल हो चुके हैं और जिनके पोते-पोतियाँ भी 'माशाअल्लाह” शादीशुदा और बाल- बच्चोंवाले हैं, लेकिन वे उम्र के इस आख़िरी मरहले में भी भरपूर रोमांटिक ज़िन्दगी गुज़ार रहे हैं। ये वे लोग होते हैं जो उस राज़ को पा लेते हैं जो ख़ुशगवार ज़िन्दगी के लिए ज़रूरी है। इस किताब में हम शादीशुदा ज़िन्दगी की हमेशा रहनेवाली ख़ुशियों के कुछ अहम उसूल बताएँगे। (7) एक-दूसरे को सुनें

एक-दूसरे में भरपूर दिलचस्पी लें, खूब बात करें और खूब एक-दूसरे को सुनें। शादी के शुरुआती सालों में चूँकि वक्‍त हाथ में रहता है, ज़िम्मेदारियाँ भी कम होती हैं और नई-नवेली शादीशुदा ज़िन्दगी का रोमांस और उसके बारे में जानने की ख़ाहिश उठान पर होती है, इसलिए दूल्हा और दुल्हन पूरे तौर पर एक-दूसरे का ध्यान रखते हैं। धीरे-धीरे यह तवज्जोह और रुझान कम होने लगता है और वह वक्त भी आता है कि दोनों के पास अपने दिल

जा आर ख़ानदानी ब्रानदानी खुशियों कैसे हातिल की जाएँ?

की बातें करने के लिए वक्त ही नहीं होता कल छोटे बच्चे को टिफ़िन में क्या दिया जाए? बड़े के इम्तिहान की तैयारी कैसे कराई जाए? बुरे पड़ोसी से कैसे निबटा जाए? इन ही बातों में उनका वक्त, बल्कि उनकी रातें भी गुजर जाती हैं। इस तरह वे सिर्फ़ रूम-मेट बनकर रह जाते हैं। शादीशुदा ज़िन्दगी एक-दूसरे की शस्ियतों में भरपूर दिलचस्पी और 'दिल-से-दिल” की बातों के ज़रिए मज़बूत होती है। एक-दूसरे की सेहत के बारे में, खूबसूरती के बारे में, सलाहियतों के बारे में और एक-दूसरे के ख़ाबों के बारे में खूब बातें कीजिए इसके लिए वक्त निकालिए। मसरूफ़ वक्तों में भी एक ज़रा-से फ़ोनकॉल के ज़रिए या मैसेज के ज़रिए रोमांस के शोले को गर्म रखिए, उसे ठण्डा होने दीजिए | पैगृम्बर मुहम्मद (सल्ल.) ने जाबिर (रज़ि-) की शादी पर उनसे जो बातें कीं उससे यह पता चलता है कि शादीशुदा ज़िन्दगी कैसी होनी चाहिए। नबी (सल्ल-) ने फ़रमाया-

“तुम उससे खेलो, वह तुमसे खेले। तुम उसको हँसाओ, वह

तुमको हँसाए।” (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम)

अल्लाह के पैगम्बर (सल्ल.-) की घरेलू ज़िन्दगी की जो तफ़सील हमें हदीस की किताबों में मिलती हैं उसमें बेहद गर्मजोशी और एक-दूसरे से भरपूर ताल्लुक़ (०॥रण४/०४४०) नज़र आता है। मिसाल के तौर पर नबी (सल्ल.) हज़रत आइशा (रज़ि.) के साथ दौड़ का मुक़ाबला करते थे। जीत-हार पर दिलचस्प तबसिरा करते थे। अपने साथ उन्हें हबशियों का खेल दिखाते थे। (2) मुहब्बत का इजहार और तारीफ़ करें

एक हदीस के मुताबिक़ अल्लाह के पैगम्बर (सल्ल-) ने फ़रमाया कि अगर आपको अपने भाई से मुहब्बत हो तो उसे कह दो कि आपको उससे मुहब्बत है। इस हदीस की रौशनी में देखा जाए तो यह कितना ज़रूरी हो जाता है कि शौहर-बीवी भी एक-दूसरे से मुहब्बत का इज़हार करें। मुहब्बत के इज़हार की यह ज़रूरत हमेशा होती है और हर तरीक़े से होती है। बार-बार यह कहना कि मुझे तुमसे बेहद मुहब्बत है, इशारों से उसका इज़हार

ख्ानदानी खुशियों कैसेहासित की जाएंए................

करना, खूबियों की दिल खोलकर तारीफ़ करना, एहसानों पर दिल की गहराइयों से शुक्रिया अदा करना, कामयाबियों पर जश्न मनाना, ये सब जज़बात के इज़हार के ज़रिए हैं और ख़ुशगवार ज़िन्दगी के लिए ज़रूरी: है कि ये सब भरपूर तौर पर इस््तियार किए जाएँ।

एक बार तारीफ़ काफ़ी नहीं, बार-बार और हमेशा इसकी ज़रूरत पेश आती है। अच्छे जोड़े छोटी-छोटी ख़ूबियों और कामयाबियों पर भी खुशियाँ मनाने और धूम मचाने का फ़न जानते हैं। रिसर्च से मालूम होता है कि ऐसे जश्न शादीशुदा रिश्ते को मज़बूत करने में बहुत अहम रोल अदा करते हैं। इसी तरह रिसर्च से यह भी मालूम होता है कि एक-दूसरे की खुशियों पर भरपूर तरीक़े से खुश होना भी शादीशुदा ज़िन्दगी की खुशियों का अहम राज़ है। शौहर को ऑफ़िस में कोई कामयाबी मिली और उसपर बीवी ने मीठा और दूसरे ख़ास पकवान तैयार करके घर पर पार्टी कर दी। बीवी ने अरबी का कोर्स पूरा किया, इसपर शौहर मिठाई ले आया। ये सब छोटी-छोटी खुशियाँ रिश्तों को बहुत मज़बूत बना देती हैं।

औरत की यह सख्त ख़ाहिश होती है कि शौहर उसकी ख़ूबसूरती को सराहे, उसकी तरफ़ ध्यान से देखे और उसकी तारीफ़ करे। इसी तरह यह शौहर की भी ज़रूरत होती है कि उसकी शख़्सियत के अच्छे पहलुओं की उसकी बीवी तारीफ़ करे न्‍

(3) अहमियत का एहसास दिलाएँ

रिश्ते की मज़बूती के लिए यह भी ज़रूरी है कि बीवी को यह एहसास हो कि उसका वुजूद शौहर के लिए सबसे अहम है, इसी तरह यही एहसास शौहर को भी हो। एक-दूसरे से किसी सफ़र या ज़रूरत की वजह से जुदा हों तो जुदाई की तकलीफ़ का और जल्द-से-जल्द मिलने की बेचैनी का इज़हार हो। एक-दूसरे के काम मामलों में मश्वरा किया जाए और उस मश्वरे को अहमियत दी जाए | ख़ानदान की महफ़िलों में एक-दूसरे को भरपूर अहमियत दी जाए। साथ गुज़रनेवाले वक्त की अहमियत और उनकी ख़ुशी एक-दूसरे को महसूस हो

5०४४ ख़ानदानी खुशियों कैसे हासिल की जाएँ?

अल्लाह के पैग़म्बर (सल्ल.) जंग में अपनी बीवियों को साथ ले जाते थे। ऊँट हॉकनेवालों को हुक्म देते कि धीरे चलो, अन्दर आबगीने (शीशे के सामान यानी नाज़ुक हस्तियाँ) हैं। अपनी बीवियों से मश्वरा करते | हुदैबिया की सुलूह के बाद उन्होंने एक बड़ा पेचीदा मसला उम्मे-सलमा (रज़ि-) के मश्वरे को क़बूल करके हल किया। मुहम्मद (सल्ल.) घर के काम-काज में अपनी बीवियों का हाथ बटाते आटा तक गूँद देते।

अहमियत का एहसास एक-दूसरे पर तबज्जोह देने से भी होता है। शौहर ऑफ़िस से घर आता है और बीवी सारे काम छोड़कर उसकी तरफ़ ध्यान देती है। उंसका बैग, मोज़े वगैरा उसके हाथ से ले लेती है, उसे पानी या चाय पेश करती है, वह किसी मुश्किल काम में लगा हो तो बढ़कर मदद करती है। इसी तरह बीवी पर घर के काम का दबाव है और शौहर आगे बढ़कर उसकी मदद करता है, वह मैके से वापस रही होती है तो ऑफ़िस से वक्त निकालकर उसके स्वागत के लिए मौजूद रहता है। ये छोटी-छोटी बातें उनकी मुहब्बत को बढ़ाती हैं।

अहमियत का एहसास इससे भी होता है कि जिस चीज़ या जिस शख्सियत को आपकी बीवी अहमियत देती है उसको आप भी अहमियत दें। उसके रिश्तेदारों को अहमियत दें, दोस्तों को अहमियत दें, उसके पसन्दीदा पकवान को अहमियत दें, उसके पसन्दीदा रंग को अहमियत दें, उसके शौक़ से आपको भी प्यार हो | हज़रत आइशा (रज़ि.) से रिवायत है कि मुहम्मद (सल्ल-) की पहली बीवी हज़रत ख़दीजा (रज़ि.) की मौत के बाद भी उनकी सहेलियों से वे अच्छा सुलूक करते और उनको तोहफ़े और क़ुरबानी का गोश्त भिजवाते। (हदीस : तिरमिज़ी)

(4) अपनी उम्मीदें और आरज़ूएँ साफ़-साफ़ बताएँ

अल्लाह ने इनसानों के मिजाज़ एक जैसे नहीं बनाए। शौहर-बीवी में इस्तिलाफ़ का एक पहलू तो जिंस (नस्ल) का अलग-अलग होना है। मर्द और औरत सिर्फ़ जिस्मानी लिहाज़ से अलग-अलग नहीं हैं, जज़बाती और नफ़सियाती लिहाज़ से भी उनमें बड़ा फ़र्क़ है। इसी लिए कहते हैं मर्द मंगल

खानदानी खुशियों कैसे हासिल की जाएं?...........्‌

ग्रह से हैं तो औरतें शुक्र ग्रह से (थछा बा० गा ६४, ऐणाल धर गा ५८७५४) | मतलब यह कि दोनों के मिज़ाजों में बुनियादी फ़र्क़ होता है। फिर इनसानों में और भी बहुत-से फ़र्क़ होते हैं जो उनकी ख़ानदानी ख़ासियतों और माहौल कौरा से पैदा होते हैं। मियाँ-बीवी को इस फ़र्क का लिहाज़ करना चाहिए और उसकी क़द्र करनी चाहिए | बहुत-से मामलों में शौहर की पसन्द अलग हो सकती है, बीवी की अलग दोनों की सोच, तरजीह और काम करने के तरीक़े वगैरा में भी फ़र्क हो सकता है। उनकी शख़्ियतों में कुछ फ़ितरी कमज़ोरियाँ भी हो सकती हैं। शौहर को भूख बरदाश्त नहीं होती तो बीवी नीन्द पर क़ाबू नहीं रख पाती। बीवी मिलनसार है तो शौहर तन्हाईपसन्द खुश ख़ुर्रम जोड़े ऐसे फ़र्क़ को सिर्फ़ बरदाश्त ही नहीं करते, बल्कि इनपर जश्न मनाते हैं। एक-दूसरे को छूट देते- हैं। गलतियों को नज़रन्दाज़ करते हैं। इस्लाम भी हमको यही हुक्म देता है। कुरआन कहता है कि बीवी की कोई बात तुमको पसन्द हो तो हो सकता है अल्लाह ने उसमें तुम्हारे लिए भलाई रखी हो। अल्लाह फ़रमाता है-

“अगर वे (बीवियाँ) तुम्हें नापसन्द हों तो हो सकता है कि एक

चीज़ तुम्हें पसन्‍्द हो मगर अल्लाह ने उसी में बहुत कुछ भलाई

रख दी हो ।” «. (क़ुआन, सूरा-4 निसा, आयत-9)

« एक-दूसरे की कोई बात या कोई रवैया बहुत ज़्यादा नापसन्द हो तो उसका खुलकर इज़हार करना चाहिए। माहिर लोग कहते हैं कि ख़ुशगवार शादीशुदा ज़िन्दगी में छोटी-मोटी लड़ाइयों की .भी बड़ी अहमियत है। इससे भी मुहब्बत बढ़ती है। इससे हमको मालूम होता है कि. ज़िन्दगी के हमारे, साथी को हमारी क्‍या चीज़ पसन्द नहीं आती और हमारा कौन-सा रवैया उसको तकलीफ़ पहुँचाता है। खुश ख़ुर्रम जोड़े इन लड़ाइयों में एक-दूसरे को अपनी उम्मीदें जता देते हैं। एक-दूसरे की जो बात सख्त नापसन्द है या जिंस रवैये से तकलीफ़ पहुँची हो उसे साफ़-साफ़ बता देते हैं। यह पसन्दीदा रवैया है। नांपसन्दीदा रवैया यह है कि लड़ाई हो तो असल शिकायत मालूम ही हो और फुज़ूल की बातों पर॑ झगड़ा होता रहे ताने, तंज़, पुराने फ़ुज़ूल के क्रिस्सों, एक-दूसरे के रिश्तेदारों पर चोट कौरा पर झगड़ा होता रहे और

४:49 एछआ: ख़ानदानी खुशियों कैसे हासिल की जाएँ? -

असल शिकायत का पता ही चले। ऐसे जोड़ों के दिलों में शिकायतों के नासूर पलते रहते हैं और जब ये फटते हैं तो मालूम होता है कि तलाक़ की वजह सिर्फ़ यह है कि शौहर टूथपेस्ट के टयूब को कहीं से भी दबा देता था, जबकि बीवी चाहती थी कि वह तरतीब से पीछे से दबाते आए। (यह सच्चा वाक़िआ है।)

(5) ग़लतियाँ क़बूल कंरें, माफ़ी चाहें और ख़ुद को बदलें

आदमी से कोई ग़लती हो यह मुमकिन नहीं है। गलती का एहसास हो जाए या दूसरी तरफ़ से एहसास दिलाया जाए तो अपनी ग़लती क़बूल करके माफ़ी भी माँग लें। माफ़ी सिर्फ़ माफ़ी के बोल का नाम नहीं है, बल्कि यह एक तरीक़ा है जिसके ज़रिए आप सामनेवाले के ज़ेहन और जज़बात को उस ग़लती के असर से पाक करते हैं जो आपसे हुई है। संजीदा माफ़ी के तरीक़े नीचे दिए गए हैं-

» जो ग़लती आपने की है उसका पूरी तरह ज़िक्र करते हुए साफ़ लफ्ज़ों में माफ़ी माँगिए | कहिए कि फ़ुलाँ-फ़ुलाँ गलती के लिए मैं शरमिन्दा हूँ और माफ़ी चाहता हूँ।

» बताइए कि उसे ग़लती का दूसरे पर क्या असर हुआ है या हो सकता है। उसको भी मानिएं।

< उस ग़लती को दोबारा करने या रवैये में सुधार की यक़ीनदिहानी कराइए

इस तरह की माफ़ी हमारे रिश्ते को और मज़बूत करती है और मुहब्बत बढ़ाती है। इसी तरह मुहब्बत इससे भी बढ़ती है.कि आप अपने ज़िन्दगी के साथी की मरज़ी के मुताबिक़ ख़ुद को बदलें.। जो रवैया उसको पसन्द नहीं उसको छोड़ दें।

रवैये के अलावा बदलाव का एक मैदान ' शौहर-बीवी की दूसरी छोटी-मोटी पसन्द 'या नापसन्द भी हो सकती है। मिसाल के तौर पर कोई

ख़ास रंग आप पहनती हों वह आपके शौहर को पसन्द हो, तो आप उसे *

फ़ौरन पहनना छोड़ दें | या कोई पकवान का तरीक़ा जो उसे नापसन्द हो,

खानदानी खुशियों कैसे हासिल की जाए...

वह आप बदल दें। या बीवी को शौहर के पान खाने की आदत पसन्द हो, उसके किसी ख़ास परफ्यूम से चिढ़ हो, या चप्पल पहनकर उसका बाज़ार जाना पसन्द हो और वह उस आदत को छोड़ दे तो इस अमल से आपका मक़ाम उसकी नज़रों में और आपकी मुहब्बत उसके दिल में बहुत बढ़ जाएगी और आपके रिश्ते को मज़बूती मिलेगी।

(6) गुस्से को कंट्रोल करें और ज़बान को क्राबू में रखें

लहजा और ज़बान का तीखापन रिश्तों में ज़हर घोल देता है मेरे पास जो केस आते हैं उनमें कई बार मसला कुछ नहीं होता। बस कम्यूनिकेशन की ख़राबी रिश्तों को बिगाड़ देती है ! इसी लिए इस्लाम में ज़बान पर कंट्रोल की ख़ास तालीम मिलती है। यह कंट्रोल हर रिश्ते में ज़रूरी है, लेकिन शादीशुदा ज़िन्दगी में इसकी अहमियत बहुत ज़्यादा है। हमारे ज़ेहन की खासियत है कि वह सामनेवाले के अलफ़ाज़, लब लहजा, आवाज़ के उतार-चढ़ाव और चेहरे के तास्सुरात इन सबको क़बूल करता है। और यह ज़ेहन पर असर डालता रहता है और रवैयों को मुतास्सिर करता है। हम बेख़्याली में कुछ कह देते हैं और वह तीर बनकर हमारे (शौहर/बीवी के) दिल पर गहरा ज़ख़्म लगा देता है। हमें पता ही नहीं चलता कि हमने उसके दिल का ख़ून कर दिया है। बाद में बोलनेवाला और सुननेवाला दोनों इसे भूल जाते हैं लेकिन उस वाक़िए ने जो दराड़ पैदा की है वह बाक़ी रहती है और ऐसी दराड़ें धीरे-धीरे रिश्तों और जज़बात के अन्दर रुखापन ले आती हैं। गुस्से में हम अकसर बच्चों के सामने आपस में गलत बातें कह जाते हैं, जिसका असर बच्चों पर भी होता है। अकसर जोड़े बाद में यह कहते फिरते हैं कि हमने तो गुस्से में ऐसा कह दिया और हमारा मक़सद यह नहीं था। शादीशुदा ज़िन्दगी को मज़बूत करने के लिए ज़रूरी है कि हम गुस्से पर क्राबू पाना सीखें। गुस्सा आए तो उठ खड़े हों। ठण्डा पानी पिएँ। शैतान से अल्लाह की पनाह और माफ़ी माँगें। गुस्सा करने और ज़बान पर कंट्रोल का शादीशुदा ज़िन्दगी की ख़ुशियों और उसे बेमुरव्वती से बचाने में बड़ा अहम रोल होता है।

7700: ख़ानदानी खुशियों कैसे हासिल की जाएँ?

(7) कुछ साझा दिलचस्पियाँ और काम अपनाएँ -

रिसर्च से मालूम होता है कि शादीशुदा ज़िन्दगी में साझा दिलचस्पियों और काम की भी बड़ी अहमियत होती है। इनसे ताल्लुक़ गहरा होता है। शौहर और बीवी को अपनी अलग-अलग दिलचस्पियों और काम की भी क्र॒द्र करनी चाहिए और उसके लिए एक-दूसरे को मौक़ा देना चाहिए और साथ ही कुछ दिलचस्पियाँ और काम ऐसे अपनाने चाहिएँ जो दोनों के लिए एक हों। दोनों मिलकर बागबानी (9970०7789) कर सकते हैं। कभी मिलकर साथ में कोई चीज़ पका सकते हैं। कोई खेल खेल सकते हैं। आसानी हो तो तैराकी कर सकते हैं। कुछ हो तो कम-से-कम मिलकर पार्क में टहलने की आदत बना सकते हैं। शेर शायरी का शौक़ हो तो उसमें मुक़ाबला कर सकते हैं। मिलकर किसी किताब को पढ़ सकते हैं। साथ में कोई वीडियो प्रोग्राम देख सकते हैं। कभी साथ में कोई लम्बी ड्राइव, पिकनिक या मुहिम पर जा सकते हैं। मिलकर कोई नई ज़बान या कोई नया फ़न सीख सकते हैं। जो लोग दीनी सरगर्मियों में लगे हुए हैं उनके लिए दावत और तहरीक का साझा काम भी एक तरह की दिलचस्पी का बहुत अहम मैदान हो सकता है। अगर ज़िन्दगी में ऐसी कोई साझा सरगर्मी या दिलचस्पी हो तो कोशिश करनी चाहिए कि ऐसी कोई चीज़ तलाश की जाए और उसे अपनाया जाए। (8) एक-दूसरे के लिए दुआ करें

खुशगवार शादीशुदा ज़िन्दगी के लिए यह भी ज़रूरी है कि हम एक-दूसरे के लिए दुआ करें | एक-दूसरे के लिए दुआ मुहब्बत बढ़ाती है और तलखियों को मिटा देती है। यह मशहूर दुआ तो ख़ुद अल्लाह ने हमें सिखाई है-

रब्बना हब लना मिन अज़वाजिना जुर्रिय्यातिना कुर-र-त

अअयुनिवं वज-अलना लिल-मुत्तकी-न इमामा।

“ऐ हमारे रब! हमें अपनी बीवियों और अपनी औलाद से आँखों

की ठण्डक दे और हमको परहेज़गारों का इमाम बना |”

(कुरआन, सूरा-25 फ़ुरक़ान, आयत-74)

ख़ानदानी खुशियों कैसे हासित की जाएं?

सोने से पहले आयतुल-कुर्सी, सूरा-2 इख़लास, सूरा-8, 4 फ़लक़ और नास और सूरा-2 बक़रा की आख़िरी 2 आयतों को मिलकर पढ़ें और एक-दूसरे पर दम करें। कभी-कभी मिलकर दुआ करें। जब भी कोई मुश्किल हो, कोई झगड़ा हो या रिश्ता किसी मुश्किल से दोचार हो तो सबसे पहले ख़ुदा से मदद माँगी जाए। एक मुसलमान की सबसे बड़ी ताक़त दुआ, खुदा पर ईमान और उससे ताल्लुक़ की ताक़त ही है। यह ताक़त शादीशुदा ज़िन्दगी में भी पूरी तरह इस्तेमाल होनी चाहिए। शौहर अपने कैरियर या कारोबार के किसी अहम मरहले की शुरुआत कर रहा हो तो बीवी रात को उठकर उसके लिए दुआ करे बच्चे की पैदाइश के मरहले में शौहर ख़ासतौर पर बीवी के लिए दुआ करता रहे | एक-दूसरे के लिए खैरात करें और मन्नतें मानें | इनसे भी मुहब्बत बढ़ती है और हमारी शादीशुदा ज़िन्दगी पर अल्लाह की रहमत नाज़िल होती है और उसकी ख़ास मदद मिलती है।

यूनिवर्सिटी ऑफ़ वाशिंगटन की एक रिसर्च से मालूम होता है कि खुशगवार शादीशुदा ज़िन्दगी के लिए ख़ुशगवार और नाखुशगवार (सकारात्मक और नकारात्मक) बातों का अनुपात कम-से-कम पाँच और एक का होना चाहिए। मतलब अगर्‌ महीने में दस बार नाराज़गियाँ, छोटी-मोटी लड़ाइयाँ, शिकायतें, दोनों में से किसी एक से नापसन्दीदा हरकत कौरा हो जाएँ तो कम-से-कम पचास बार ख़ुशगवार बातें यानी मुहब्बत का इज़हार, एक-दूसरे की ख़ुशी पर जश्न मनाना, तारीफ़ करना, प्यार-मुहब्बत का गर्मजोश इज़हार वगैरा होना चाहिए। यह अनुपात अगर घटता है तो रिश्ते खराब होने लगते हैं या उनमें बेमुरव्वती और रुखापन आने लगता है। इस मज़मून (लेख) में प्वाइंट एक, दो, तीन, सात और आठ मुसबत (सकारात्मक) बातों की मिसालें हैं। इनके अलावा मुसबत (सकारात्मक) बातों की और भी मिसालें हो सकती हैं। जिस्म को छूना यानी एक-दूसरे को गले लगाना, चूमना, हाथ- में-हाथ देना वगैरा भी मुसबत (सकारात्मक) बातों की मिसालें हैं| इन सब चीज़ों की तादाद और संख्या (7०६५०7८७) हम ज़्यादा-से-ज़्यादा कर दें तो छोटी-मोटी मनफ़ी (नकारात्मक) बातों के नुक़सान से इस ख़ूबसूरत लेकिन निहायत हस्सास और नाज़ुक रिश्ते को कमज़ोर होने से बचा सकते हैं।

गा ख़ानदानी खुशियों कैसे हासिल की जाएँ?

शादी से पहले काउंसलिंग

सलमा (नाम बदल दिया गया है) नामी एक ख़ूबसूरत और पढ़ी-लिखी लड़की को उसके माँ-बाप मेरे पास लेकर आए वह शादी के लिए हरगिज़ तैयार नहीं थी। आमतौर पर इसकी वजह लोग यह समझते हैं कि लड़की रिश्ते से खुश नहीं है या किसी और से शादी करना चाहती है या और तालीम हासिल करना या कैरियर को आगे बढ़ाना चाहती है। लेकिन दरख्शाँ का इनमें से कोई भी मसला नहीं था। उसकी इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी हो चुकी थी। अब उसे और ज़्यादा पढ़ाई से दिलचस्पी थी और वह नौकरी करना चाहती थी। वह किसी से भी शादी नहीं करना चाहती थी। माँ-बाप के लिए यह फ़ितरी तौर पर परेशानी की बात थी।

सलमा के इस इनकार की वजह वही अन्देशे थे जो इस उम्र की अकसर लड़कियों में पाए जाते हैं। सलमा ने मुझसे कहा कि “मेरी शादीशुदा सहेलियों ने बताया कि अकेले रहना ही बेहतर है। इस तरह ही ज़िन्दगी का ज़्यादा बेहतर तरीक़े से मज़ा लिया जा सकता है मेरी सहेलियाँ हमेशा अपने शौहरों की शिकायतें करती हैं, उनके ग़लत रवैयों का ज़िक्र करती हैं और मुझसे मश्वरे भी माँगती हैं। ये सारी बातें मुझे परेशान करती हैं और शादी से खौफ़ दिलाती हैं। मैं शादी के ख़िलाफ़ नहीं हूँ, मगर मुझे नाखुश रहने और ज़िन्दगी का मज़ा खो देने से डर लगता है।” उसने मुझसे यह भी पूछा कि यह जो फ़िल्मों में दिखाते हैं कि कैसे कुछ जोड़े एक-दूसरे से शादी करने के लिए तड़पते हैं और बाद में एक-दूसरे पर जान छिड़कते हैं। क्या यह सब हक़ीक़त में भी होता है?

यह सवाल हर गैर-शादीशुदा औरत के ज़हन में आता है। कुछ लड़कियों में शादी के बाद हो जानेवाले बुरे हालात का खौफ़ ही शादी करने के कुदरती जज़बे पर भारी पड़ जाता है। वे शादी के लिए तैयार भी होती

ख़ानदानी खुशियों कैसे हासिल की जाएं?.............._

हैं तो सख्त अन्देशों के साथ। ज़िन्दगी का सबसे अहम और खूबसूरत दिन यानी शादी का दिन, वे सख्त दबाव और तनाव में गुज़ारती हैं। ख़ौफ़ और 'अन्देशों का बोझ लिए वे अपने जीवन साथी के घर में दाख़िल होती हैं।

इसकी वजह क्या है? इसको हम समझ जाएँ तो शायद शादीशुदा ज़िन्दगी के ज़्यादातर मसलों पर क़ाबू पालें और अपने समाज को शादीशुदा ज़िन्दगी के झगड़ों की लानत से पाक करने में भी कामयाब हो जाएँ इसकी असल वजह यह है कि एक लड़की को अपने हर तरफ़ बहुत कम ख़ुश खुर्रम और पुरजोश जोड़े नज़र आते हैं। हमारे समाज में बहुत-सी अजीब बातें मज़बूत रिवायतें बन चुकी हैं। 'सास-बहू के झगड़े” फ़िल्म और लिट्रेचर से लेकर घरेलू गपबाज़ियों तक हर जगह का रिवायती मौज़ू (विषय) बन चुका है। ये सब मिलाकर यह यकीन लड़की के अन्दर पैदा कर देते हैं कि सास एक निहायत ज़ालिम औरत का नाम है।

अल्लाह ने हमारे दिमाग़ के दो हिस्से बनाए हैं। एक शुकर (ए०7- 50०१५ 70) और दूसरा लाशुऊर (7स्‍0078००५७)/॥70) | शुकर दिमाग़ का वह हिस्सा है जिसपर हमारा कंट्रोल होता है, जिससे काम लेकर हम फ़ैसले करते हैं, सोचते हैं और मसले हल करते हैं। यहीं हमारी शॉर्ट मेमोरी होती है जिसकी मदद से हम चीज़ों को याद करते हैं। इससे अलग लाशऊर दिमाग़ का वह हिस्सा है जिसपर हमारा कंट्रोल नहीं होता यहीं हमारी आदतें होती हैं, चाल-ढाल होती है, जज़बात होते हैं। हमारे रवैये और मिज़ाज की कैफ़ियतें भी इसी से निकलती हैं। पैदा होने से पहले से यानी माँ के पेट के अन्दर से अब तक, जो कुछ बातें हम सुनते, देखते, महसूस और तजरिबा करते आए हैं, वे सब हमारे लाशुऊर में महफ़ूज़ होती जाती हैं और हमारे रवैयों और आदतों को जन्म देती हैं। बचपन का एक नाखुशगवार तजरिबा, हमें याद भी नहीं रहता, लेकिन हमारे लाशुऊर में महफ़ूज़ रहता है और उस नामालूम तजरिबे की वजह से ज़िन्दगी-भर हमारा मिज़ाज ग़ुसैला और चिड़चिड़ा बन जाता है। हमारी हर आदत, हर रवैया और शख़्सियत का हर पहलू इसी तरह पैदा होता है। अच्छे रवैये के लिए ज़रूरी है कि लाशुऊर की अच्छी प्रोग्रामिंग हो।

एच ख़ानदानी ब्रानदानी खुशियाँ केसे हासिल की जाएँ?

अब अगर कोई लड़की अपने लाशुऊर में यह तसब्वुर लेकर ससुराल में क़दम रखे कि सास, नन्‍द और जिठानी ये सब निहायत ज़ालिम लोगों के नाम हैं, खुशी मैके ही में मिलती है, ससुराल तो तकलीफ़ और आज़माइश की जगह है, तो इसका लाज़िमी नतीजा यह निकलेगा कि वह ससुराल और ससुराली रिश्तेदारों से ताल्लुक़ रखनेवाले हर मामले को ख़ौफ़ और शक की नज़र से ही देखेगी। नन्द की छोटी गलती भी बड़ी नज़र आएगी। जिन बातों पर माँ हमेशा टोकती थी, उन ही में से किसी बात पर सास कुछ कह दे तो यह बड़ा ज़ुल्म महसूस होगा। (इस तरह के ग़लत तसब्बुर सास के दिमाग़ में भी होते हैं और उसका बहू के साथ रवैया भी हक़ीक़त में खराब हो सकता है। लेकिन इस वक्त चूँकि हमारा विषय लड़कियों की काउंसलिंग है, इसलिए इसका ज़िक्र मैं नहीं कर रही हूँ।) उन लाशुऊरी तसवब्बुरों का असर उसके रवैये पर पड़ेगा। वह ससुराल में किसी को अपना समझेगी ही नहीं, और लाशुऊर में मौजूद गैरियत का यह एहसास उसकी आवाज़, लहजे, रहन-सहन और उसके अमल, हर चीज़ से ज़ाहिर होगा | एक तरफ़ की बेहिसी और तलखी, दूसरी तरफ़ भी बेहिसी और तलख़ी को बढ़ावा देती है। अगर आनेवाली बहू के रवैयों से लगातार नापसन्दीदगी और गैरियत ज़ाहिर हो रही हो और ससुरालवाले मुहब्बत और अपनाइयत का जज़बा भी रखते हों, तो यह जज़बे भी धीरे-धीरे ख़त्म हो जाते हैं और बहुत जल्द दो तरफ़ा तत्ख़ियों के दौर की शुरुआत हो जाती है। इसके नतीजे में सिर्फ़ ससुराली रिश्तेदारों से, बल्कि शौहर से भी झगड़े शुरू हो जाते हैं। मेरे पास जो केस आते हैं उनकी रौशनी में, मैं यह बात पूरे यक्नीन के साथ कह सकती हूँ कि अकसर नाकाम शादियों की नाकामी की वजहें, लड़का या लड़की के माँ-बाप उनकी शादी से बहुत पहले पैदा कर चुके होते हैं। लड़की के माँ-बाप उसका ऐसा ज़ेहन बना चुके होते हैं कि वह एक अच्छी बीवी या अच्छी बहू का रोल अदा करने के लायक़ नहीं रहती। या लड़के के माँ-बाप, और दोस्त-रिश्तेदार उसका ऐसा लाशुऊर बना चुके होते हैं कि वह अपनी बीवी को ख़ुश रखने की नफ़सियाती और जज़बाती सलाहियत ही से महरूम हो चुका होता है।

इसलिए ख़ानदानी ज़िन्दगी की मज़बूती के लिए ज़रूरी है कि दूल्हा

का क्लकक फल की बी 7777

और दुल्हन को एक तरबियती कोर्स से गुज़ारा जाए। आजकल मामूली-मामूली काम भी ट्रेनिंग के बगैर हवाले नहीं किए जाते | शादी करना तो एक बहुत बड़ा काम है। इसके ज़रिए समाज का एक निहायत अहम इदारा (संस्था) यानी ख़ानदान वुजूद में आता है। एक कम उम्र और नातजरिबेकार लड़की और एक नई उम्र का लड़का मिलकर एक ऐसी संस्था का निज़ाम सम्भाल रहे होते हैं जिसकी समाज में बड़ी अहमियत है। इसलिए ज़रूरी है कि उनकी * तरबियत की जानी चाहिए | आजकल दूसरे गैर-मुस्लिम समाजों में इस तरह के कोर्स और शादी से पहले काउंसलिंग बहुत रिवाज पा चुके हैं। काउंसलिंग कौरा के जो कोर्स मैंने किए हैं उनमें मेरे क्लास का एक साथी एक ईसाई पादरी था जो चर्च में शादीशुदा ज़िन्दगी की काउंसलिंग के काम पर लगा हुआ था। उसे चर्च ने दुनिया के कई मुल्कों में भेजकर महँगे कोर्स कराए थे। उनके ज़रिए मालूम हुआ कि चर्च में काउंसलिंग और ख़ानदानी ज़िन्दगी की ट्रेनिंग का बहुत पाएदार निज़ाम भी है और ईसाई समाज में इसकी मज़बूत रिवायतें भी हैं। चर्च की बाक़ायदा ट्रेनिंग के बगैर कोई ईसाई जोड़ा अपनी . शादीशुदा ज़िन्दगी को शुरू नहीं करता। इस्लाम तो ख़ानदानी ज़िन्दगी के सिलसिले में बहुत तफ़सीली हिदायतें देता है। हमारे आलिमों ने लिखा है कि अगर आप कोई काम कर रहे हैं तो उस काम के बारे में शरीअत का इल्म हासिल करना फ़र्ज़ हो जाता है। इस लिहाज़ से शादीशुदा ज़िन्दगी की शुरुआत से पहले शरीअत की इसके बारे में तालीमात को जानना फ़र्ज़ है और यह समाज की ज़िम्मेदारी है कि वह उसका मुनासिब इन्तिज़ाम करे। इसके लिए ज़रूरी है कि शादी से पहले काउंसलिंग के इस प्रोग्राम में नीचे दी गई कुछ बातों को ज़रूर अमल में लाना चाहिए-

() सबसे पहली ज़रूरत तो यह है कि लड़की-लड़कों को शादीशुदा ज़िन्दगी के इस्लामी अहकाम बताए जाएँ। उन्हें बताया जाए कि ये अल्लाह और उसके रसूल मुहम्मद (सल्ल-) के अहकाम हैं। हमारे समाज और खानदान की रिवायतों का यह मक़ाम नहीं है कि उन्हें शरीअत के अहकाम से बड़ा माना जाए। ख़ानदानी रिवायतों का लिहाज़ होना चाहिए लेकिन शरीअत के दायरे के अन्दर | जहाँ रिवायत और शरीअत में टकराव हो, वहाँ

30 ख़ानदानी ब्ानदानी खुशियों कैसे हासिल की जाएँ?

शरीअत की बात ही माननी चाहिए। यही हमारे ईमान का तक़ाज़ा है। इसके बाद उनको तफ़सील से शौहर और बीवी के हुक़ूक़ और उनकी ज़िम्मेदारियाँ, ख़ानदान के दूसरे लोगों के हुकूक़ और ज़िम्मेदारियाँ, बच्चों के हुकूक, झगड़े और उनके हल के तरीक़े वगैरा के सिलसिले में इस्लामी अहकाम बताए और याद कराए जाएँ हो सके तो उसका इम्तिहान भी लिया जाए। जो लोग यह कोर्स पढ़ाना चाहें वे उर्दू रिसाले 'हिजाब” के ख़ास शुमारे (इस्लामी आइली ज़िन्दगी और तलाक़ पर्सनल लॉ के मसाइल, दिसम्बर 207) में भी इस विषय पर बहुत फ़ायदेमन्द बातें पाएँगे। इनके अलावा नीचे दी गई किताबों से भी मदद ली जा सकती है-'हुकूक़ुज़्जौजैन' लेखक मौलाना सैयद अबुल- आला मौदूदी,- “इस्लाम के आइली क़वानीन” लेखक मौलाना सैयद उरूज क़ादिरी, “इस्लाम का ख़ानदानी निज़ाम” लेखक मौलाना सैयद जलालुद्दीन उमरी।

(2) दूसरी ज़रूरत यह है कि उनके लाशुऊर की सही तरबियत की जाए। उनके ग़लत तसव्वुरात को चैलेंज किया जाए। शादीशुदा ज़िन्दगी का - बहुत खूबसूरत, रोमांस से भरा, दिलकश दिलरुबा नक़शा उनके ज़ेहन में बिठाया जाए और हक़ीक़त यह है कि यह रिश्ता है भी बहुत खूबसूरत और बहुत मज़ेदार ज़िन्दगी की बहारें और उसकी बेशुमार खुशियाँ इस रिश्ते से जुड़ी हुई हैं। इसी लिए तो कुरआन ने इसे सुकून, रहमत और मुहब्बत का घर क़रार दिया है- “और उसकी निशानियों में से यह है कि उसने तुम्हारे लिए तुम्हारी ही जिंस (सहजाति) से जोड़े बनाए ताकि तुम उनके पास सुकून हासिल करो, और तुम्हारे बीच मुहब्बत रहमत पैदा कर दी।! . (कुरआन, सूरा-80 रूम, आयत-97) तरबियत देनेवाला काउंसलर कोशिश करे कि ससुराल की नई ज़िन्दगी को लड़की एक खूबसूरत और मज़े से भरपूर एडवेंचर के तौर पर ले। लड़कियाँ इस मुसबत (सकारात्मक) तसव्वुर के साथ ससुराल में क़दम रखेंगी तो बदमिज़ाज ससुराली रिश्तेदारों के भी दिलों को जीत लेंगी। होनेवाले ससुरात्री रिश्तेदारों की पहचान कराई जाए। आज अल-हमदु लिल्लाह हमारे

ख़ानदानी खुशियाँ कैसे हासिल की जाएँ?

मुस्लिम समाज में ऐसी सासों की कमी नहीं जो बहुओं पर माओं की तरह ही प्यार लुटाती हैं। ऐसी मिसालें सामने लाई जाएँ। लड़के के ज़ेहन के तसब्बुरात को सही किया जाए। उसके ज़ेहन में अगर बीवी के बारे में यह चल रहा है कि वह एक नौकरानी है तो उसकी इस सोच को बदला जाए। उसे बताया जाए कि बीवी का मतलब क्‍या है? शरीअत ने उसे क्या मक़ाम और क्या हुकूक़ दिए हैं? मुख़्तसर यह कि ट्रेनिंग प्रोग्राम में लाशुऊर की इस तरह से तरबियत की जाए कि शौहर और बीवी निहायत ख़ुशी और जोश वलवले के साथ लेकिन सही और हक़ीक़त पर मब्नी सोच के साथ अपनी नई ज़िन्दगी की शुरुआत कर सके और निहायत ख़ुशगवार माहौल में एक नए खानदान की बुनियाद पड़ सके | इसके लिए काउंसलर (सलाहकार) को बहुत-से क्रिस्से सुनाने होंगे। स्क्रीन पर कुछ वीडियोज़ भी दिखाए जा सकते हैं। उनसे बात करनी होगी और उनके ज़ेहन. को बनाना होगा।

(3) एक ज़रूरत यह भी है कि लड़के-लड़कियों को शादी के बारे में सही फ़ैसले के लिए तैयार किया जाए। आज भी हमारे समाज में लड़कियाँ और लड़के शादी के लिए फ़ैसला करने की सलाहियत कम ही रखते हैं। वे अगर खुद अपनी होनेवाली दुल्हन या दूल्हे को चुनते हैं तो इसकी वजह कोई सोचा-समझा फ़ैसला नहीं होता, बल्कि सब वक्ती जज़बाती वजहें होती हैं, जो अकसर पछतावे ही का सबब बनती हैं। अकसर सूरतों में लड़कियाँ ही नहीं लड़के भी फ़ैसला पूरे तौर से माँ-बाप पर छोड़ देते हैं और बाद में ख़ुद भी पछताते हैं और माँ-बाप से भी शिकायत पैदा हो जाती है। इस्लाम ने शादी में लड़के और लड़की की राय को बहुत अहमियत दी है। शादी के लिए दोनों में रज़ामन्दी का इज़हार उन ही के बीच होता है। इसलिए यह फ़ैसला असल में उन ही को करना है। काउंसलिंग का एक मक़सद यह हो कि इस फ़ैसले के लिए उनको तैयार किया जाए। इसके लिए नीचे दिए गए कुछ मश्वरे फ़ायदेमन्द हो सकते हैं।

लड़कियों से (और लड़कों से भी) यह पूछा जाए कि वे अपने शौहर (या बीवी) को कैसा देखनां चाहते हैं? इस सिलसिले में उनकी तरजीह (प्राथमिकता) क्या है? उन्हें उसपर सोचने का अभ्यास कराया जाए और कहा जाए कि वे

जा ख़ानदानी खुशियों कैसे हासिल की जाएँ?

जो कुछ सोच रहे हैं उसे लिख लें इस्लाम ने दीन को तरजीह देने का हुक्म दिया है, लेकिन ख़ुद की पसन्द-नापसन्द के लिहाज़ से दूसरे मामलों का भी लिहाज़ रखा है। आप अपने-आपको और अपने मिज़ाज, पसन्द और मसरूफ़ियत को सामने रखकर सोचिए कि ज़िन्दगी का साथी कैसा होना चाहिए? उम्र? लम्बाई? खूबसूरती? पढ़ाई? मिज़ाज शख््सियत? कल्चर, वतन? पेशा वगैरा? इन सब हवालों से सवाल करके उनकी मदद कीजिए।

उन्हें कहिए कि अब इस सूची में तरजीह (प्राथमिकता) को तय कीजिए। कौन-सी बातें ऐसी हैं जिनपर कोई समझौता आप करना नहीं चाहेंगी और कौन-सी बातें हैं जिनपर समझौता हो सकता है। अगर उनकी बातें गैर-अमली (अव्यावहारिक) और ख़याली हैं तो उनकी काउंसलिंग कीजिए | ख़ाबों की दुनिया से उन्हें हक़ीक़त की दुनिया में ले आइए यहाँ तक कि उनकी सही हक़ीक़त पर मब्नी लिस्ट तैयार हो जाए। इसी तरह एक लिस्ट ऐसी भी तैयार होनी चाहिए कि क्या बातें है जो आप अपने शौहर में देखना नहीं चाहतीं? इस लिस्ट की बड़ी अहमियत होती है। अकसर ऐसी बातें ही मियाँ-बीवी के बीच बेमुरव्वती का सबब बनती हैं। इसलिए शादी से पहले ही उनके बारे में ज़ेहन साफ़ हो और इसकी बुनियाद ही पर शौहर का चुनाव हो तो ज़्यादा बेहतर है। हमारी हर पसन्द का हमेशा लिहाज़ हो - यह मुमकिन नहीं। लड़कियों का रिश्ता यूँ भी हमारे समाज में आमतौर पर मुश्किल ही से तय हो पाता है। इसलिए उनको ज़रूरी समझौते (0०७७७॥०- 786) के लिए भी तैयार रहना चाहिए लेकिन ऐसा भी हो कि लड़की की कोई पसन्द ही हो उसकी तरजीह (प्राथमिकता) और पसन्द, उसको भी और उसके माँ-बाप को भी मालूम तो होनी चाहिए और जिस हद तक मुमकिन हो उसका लिहाज़ भी रखा जाना चाहिए।

(4) उनको दिमाग़ से सोच-समझकर फ़ैसला करने के लायक़ बनाइए। शादी का फ़ैसला एक दूर तक असरन्दाज़ होनेवाला फ़ैसला है। यह लड़के और लड़की की बाक़ी ज़िन्दगी का रुख तय करनेवाला और ज़िन्दगी के ज़्यादातर हिस्से पर असर डालनेवाला फ़ैसला है। ऐसा फ़ैसला वकृ्ती जज़बात के दबाव में नहीं किया जा सकता | सोच-समझकर ही किया जाना चाहिए।

'ख़ानदानी खुशियों कैसे हासिल की जाएँ? . पी आल 2

मा-बाप की राय को अहमियत देनी चाहिए कि वे इस चीज़ का काफ़ी तजरिबा रखते हैं और तजरिबेकार लोगों में हमारे सबसे ज़्यादा खैरख़ाह हैं। लड़की जिन लोगों की रायों पर एतिमाद करती है, जिनसे क़ुरबत महसूस करती है और जिनके सामने बेझिझक अपनी बात कह सकती है, उनसे भी उसे मश्वरा करना चाहिए। आमतौर पर यह माँ ही होती है, लेकिन कभी-कभी बहन, भाई, भाभी, लड़की की कोई सहेली वगैरा को भी यह मक़ाम मिल जाता है। उनसे मश्वरे करने के लिए हिम्मत बढ़ानी चाहिए। लेकिन बहरहाल फ़ैसला लड़की या लड़के का होना चाहिए। इस सिलसिले में माँ-बाप से बात करने में कोई हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए। अगर ऐसी हिचकिचाहट हो तो काउंसलर की ज़िम्मेदारी है कि वह उसे दूर करे और शादी के मसले पर लड़के या लड़की की अपने माँ-बाप और भाई-बहनों से

साफ़ और बेझिझक बात करने की राह आसान करे।

(5) इसी तरह यह भी ज़रूरी है कि शादी के बाद शौहर के साथ मिलकर इस्लाम के बताए हुए मश्वरे के तरीक़े से फ़ैसले करने की भी उन्हें ट्रेनिंग दी जाए। निकाह के बाद अब शौहर या बीवी अकेले नहीं रहे, वे एक टीम बन गए हैं। दोनों की ज़िन्दगी ही नहीं, बल्कि ज़िन्दगी के सारे मरहले और मसले एक-दूसरे के साथ जुड़ गए हैं। दोनों को मिलकर तय करना है कि उन्हें ज़िन्दगी कैसे गुज़ारनी है? उनका घर कैसा होगा? किसकी क्या ज़िम्मेदारी होगी? आइन्दा पाँच सालों और दस सालों में वे कहाँ पहुँचना चाहेंगे? कगैरा। बाद में बच्चे होंगे तो बच्चों के बारे में फ़ैसले भी दोनों को मिल-जुलकर इस्लामी शूराइयत के तक़ाज़े निभाते हुए करने चाहिएँ दोनों मिल-जुलकर तय करेंगे और मिल-जुलकर अपने फ़ैसलों को लागू करने की कोशिश करेंगे तो “इन शाअल्लाह” झगड़ों का इमकान कम-से-कम होगा। इसलिए यह ट्रेनिंग देना बहुत ज़रूरी है। हमारे समाज में इस ट्रेनिंग की ज़्यादा ज़रूरत लड़कों को है, लेकिन लड़कियों को भी है।

(6) कामयाब ज़िन्दगी के लिए उस चीज़ की बड़ी ज़रूरत है जिसे आजकल जज़बाती ज़िहानत कहा जाता है। अमेरिका में रहनेवाले नफ़सियात के माहिर डैनियल गोलमैन ने 20 साल पहले साबित किया था कि ज़िन्दगी

हज आज का कत शव ख़ानदानी ब्ानदानी खुशियों कैसे हासिल की जाएँ?

में कामयाबी के लिए ज़िहानत (0) से ज़्यादा जज़बाती बैलेंस (80) की अहमियत, या इस बात की अहमियत है कि वे अपने और दूसरों के जज़बात को शुऊर के साथ कितना समझते हैं? कैसा रवैया अपनाते हैं? समाजी पेचीदगियों का कैसे सामना करते हैं? जज़बात को कैसे क़ाबू में रखते हैं? और कैसे अपने और लोगों के जज़बात का इस तरह लिंहाज़ रखते हैं कि उसके नतीजे में हमारे फ़ैसले और क़दम सही और पसनन्‍्दीदा नतीजों को हासिल करने का ज़रिआ बनें? अपने और दूसरों के जज़बात को समझने और उन्हें मैनेज करने की सलाहियत का नाम जज़बाती ज़िहानत है। इसके सिलसिले में भी ट्रेनिंग के कोर्स आमतौर पर हर अच्छे कोच और काउंसलर के पास मौजूद होते हैं। शादी के निहायत अहम मरहले में, जिसका गहरा ताल्लुक़ जज़बात से है, अगर दूल्हा और दुल्हन को जज़बाती ज़िहानत के ज़रूरी कोर्स से गुज़ारा जाए तो 'इन शाअल्लाह” इसके भी फ़ायदेमन्द नतीजे निकलेंगे।

(7) एक अहम ज़रूरत कम्यूनिकेशन यानी ख़यालात और जज़बात को समझने की है। मेरा तजरिबा यह है कि शादीशुदा ज़िन्दगी के मसलों की एक बड़ी वजह ख़राब कम्यूनिकेशन होता है। दोनों में से किसी के दिल में नफ़रत नहीं होती, मुहब्बत ही होती है, लेकिन इस कैफ़ियत की तरजुमानी ज़बान नहीं कर पाती। लहजा और ज़बान का तीखापन रिश्तों में ज़हर घोल देता है। गैर-वाज़ेह और अस्पष्ट कम्यूनिकेशन गलतफ़हमियाँ पैदा करता है और रिश्तों में दराड़ें डालता है। बात करने में हिचकिचाहट, टाल-मटोल और देरी ग़लतफ़हमियाँ भी पैदा करती हैं और दोनों को अलग-अलग और एक-दूसरे से जुदा दायरों में पहुँचा देती हैं अच्छे, पाकीज़ा और सेहतंमन्द जज़बात का जोश से भरपूर इज़हार हो तो उनकी वह गैर-मामूली ताक़त बेकार हो जाती है जिसके ज़रिए वे रिश्तों को मज़बूती दे सकते हैं। दूल्हा और दुल्हन को इन सबकी तरबियत मिलनी चाहिए। एक अच्छे ट्रेनिंग प्रोग्राम में अभ्यासों, मिसालों और केस स्टडीज़ कौरा के ज़रिए से दूल्हा और दुल्हन को इस लायक़ बना देना चाहिए कि वे जब भी बोलें तो उनके दरमियान रिश्ता मज़बूत-से-मज़बूत होता जाए। सिर्फ़ आपस में, बल्कि ससुराली रिश्तेदारों

मय ७०० ६००६, अं आप अक

से भी बात करें तो कम्यूनिकेशन ताल्लुक़ को और ज़्यादा मज़बूत ही करे।

(8) आख़िरी बात यह है कि शौहर और बीवी को यह भी मालूम हो कि उनके रिश्ते पर असरन्दाज़ होनेवाली वजहें सिर्फ़ वे ख़ुद और उनके क़रीबी रिश्तेदार ही नहीं हैं। सबसे ताक़तवर वजह कायनात के रब की ज़ात है। उन्हें ख़ुदा की तरफ़ पलटने की .तरबियत भी मिलनी चाहिए। रिश्ते का चुनाव करने के लिए वे ख़ुदा से दुआ करें। इसके लिए पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल-) ने जो ख़ास दुआ सिखाई है, उसका एहतिमाम करें। इस दुआ को इस्तिख़ारा कहा जाता है। शादी के बाद भी हर अहम काम या फ़ैसले से पहले इस्तिख़ारा करें।

शौहर बीवी के लिए और बीवी शौहर के लिए दुआ करे | एक-दूसरे के लिए दुआ मुहब्बत बढ़ाती है और तलख़ियों को मिटा देती है। सोने से पहले शौहर बीवी पर और बीवी शौहर पर वे दुआएँ और आयदतें पढ़कर फूँके जो अल्लाह के रसूल मुहम्मद (सल्ल-) से साबित हैं। कभी-कभी मिलकर दुआ करें | जब भी कोई मुश्किल हो, कोई झगड़ा हो या रिश्ता किसी मुश्किल से दोचार हो तो सबसे पहले ख़ुदा से मदद माँगी जाए। एक मुसलमान की सबसे बड़ी ताक़त दुआ, ख़ुदा पर ईमान और उससे ताल्लुक़ की ताक़त ही है। यह ताक़त शादीशुदा रिश्ते में भी पूरी तरह इस्तेमाल होनी चाहिए।

नीचे दी गई बातों की ज़रूरी तरबियत भी इस ट्रेनिंग कोर्स का हिस्सा होना चाहिए-

() माफ़ करने की तरबियत देना माफ़ करना और माफ़ी चाहना ये दोनों मिज़ाज की बड़ी अहम ख़ासियतें होती हैं। रिश्तों की मज़बूती में इनका बहुत अहम किरदार होता है।

बहुत-से लोगों के अन्दर यह सलाहियत नहीं होती। इस मरहले पर इसकी अहमियत भी लड़कों और लड़कियों को मालूम होनी चाहिए और उसकी सलाहियत भी उनके अन्दर पैदा होनी चाहिए। माफ़ी चाहना सिर्फ़ बेजान जुमले का नाम नहीं है, एक रवैये का नाम है। (इसकी तफ़सील मेरे अगले लेख में रही है |)

गज 3 3 30 कर ख़ानदानी ब्रानदानी खुशियों केसे हासिल की जाएँ?

(2) शुक्रगुज़ारी सिखाएँ। दूल्हा और दुल्हन को सिखाएँ कि कैसे एक-दूसरे के लिए, घरवालों के लिए और ख़ुदा के लिए शुक्रगुज़ारी के जज़बात परवान चढ़ाए जा सकते हैं। जिस चीज़ को आजकल नेक और अच्छी सोच (?०४॥ए९ ॥/००४४। &007१७) कहा जाता है उसका सबसे खूबसूरत मज़हर इस्लाम में शुक्र का तसव्वुर है।

(3) खुश रहना सिखाएँ। दूल्हा और दुल्हन अपनी ज़िन्दगी के सबसे ज़्यादा खुशियों से भरे दौर की शुरुआत कर रहे हैं। उन्हें सिखाइए कि कैसे वे इन लम्हों को यादगार बना सकते हैं। छोटी-मोटी कमज़ोरियों को नज़रन्दाज़ करना और एक-दूसरे की शख़्सियतों के हसीन पहलुओं पर नज़रें जमा देना, यही पाएदार शादीशुदा रिश्ते का असल राज़ है। इसी से यह रिश्ता प्यार-मुहब्बत और आराम सुकून का घर बन जाता है।

(4) इसके साथ-साथ लड़के और लड़की को इसकी भी तरबियत मिलनी चाहिए कि वे एक-दूसरे के लिए कैसे कशिश (आकर्षण) बन सकते हैं। लड़की के लिए बनाव-श्रृंगार सिर्फ़ शादी के दिन के लिए नहीं है और पार्टियों के लिए है। उसे सबसे ज़्यादा शौहर के लिए सँवरना चाहिए। शौहर को भी कशिश से भरपूर बने रहने की कोशिश करनी चाहिए। कशिश का ताल्लुक़ जिस्मानी हुस्न से भी है, लेकिन उससे ज़्यादा अन्दरूनी हुस्न से है। बातचीत, लब लहजा और रवैये का हुस्न ज़्यादा देर तक कशिश पैदा करता है।

(5) लड़कियों को बताएँ कि हर रिश्ता अलग होता है। माँ और सास के बीच मुवाज़ना (तुलना) करने की आदत सही नहीं है। माँ की मुहब्बत और सास की मुहब्बत में वैसा ही फ़र्क होता है, जैसे बाप की मुहब्बत और भाई की मुहब्बत में फ़र्क होता है। मुहब्बत अलग तरह हो तो यह नहीं समझना चाहिए कि सास को उससे लगाव नहीं है। इसी तरह का मामला हर ससुराली रिश्ते का है। हर घर का अपना कल्चर होता है। उसके अच्छे पहलू भी होते हैं और ख़राब भी। घरों के कल्चर और रिवायतों के बेसबब मुवाज़ने से भी बचना चाहिए।

ख़ानदानी खुशियाँ कैसे हासिल की जाएँ?

(6) लड़की को शौहर के माल की क़द्र करने की आदत होनी चाहिए उसके काम और मसरूफ़ियतों की भी क़द्र होनी चाहिए। इसी तरह लड़के को अपनी बीवी की क्कुरबानियों, मेहनतों और काम की क़द्र करनी चाहिए।

एक अच्छा ट्रेनर जो इस्लाम की तालीमात से भी वाक़्रिफ़ हो और कोचिंग की नई तकनीकों से भी, वह इस सब बातों का लिहाज़ करते हुए ऐसा ट्रेनिंग कोर्स डिज़ाइन कर सकता है जो फ़ायदेमन्द हो और निहायत दिलचस्प भी कहानियों, क्रिस्सों, अभ्यासों, केस स्टडीज़ और एन.एल.पी. वगैरा की दिलचस्प असरदार तकनीकों के ज़रिए से लड़के और लड़की के अन्दर ज़रूरी बदलाव लाया जा सकता है।

एफ आ: ख़ानदानी ब्ानदानी खुशियाँ केसे हासिल की जाएँ?

शादीशुदा जिन्दगी के झगड़े ओर काउंसलिंग

अल्लाह ने शौहर और बीवी को एक-दूसरे के लिए सुकून का ज़रिआ बनाया है। कुरआन में है, “और उसकी निशानियों में से यह है कि उसने तुम्हारे लिए तुम्हारी ही जिंस से जोड़े बनाए ताकि तुम उनके पास सुकून हासिल करो, और तुम्हारे दरमियान मुहब्बत और रहमत पैदा कर दी”, (कुरआन, सूरा-80 रूम, आयत-2)। यह इनसानी ज़िन्दगी की बड़ी ज़रूरत, है कि शौहर और बीवी एक-दूसरे के लिए सुकून की वजह हों यह सूरतेहाल हो तो उससे जो नफ़सियाती सुकून और ज़ेहनी जज़बाती इत्मीनान हासिल होता है वह खुशहाल ज़िन्दगी के लिए और ज़िन्दगी के अलग-अलग मैदानों पर कामयाबी के लिए बुनियाद का काम करती है। इसी लिए अल्लाह के रसूल (सल्ल.) ने एक अच्छी बीवी को मर्द के लिए अल्लाह की सबसे बड़ी नेमतों में से एक क़रार दिया है। ऐसा ही मामला औरत के साथ भी है। शौहर और बीवी में एक-दूसरे के साथ मुहब्बत और आपसी ताल-मेल हो तो घर भी सुकून की जगह बनती है। बच्चों को ख़ुशगवार माहौल मिलता है। ऐसे माँ-बाप के बच्चे नफ़सियाती लिहाज़ से मज़बूत और अच्छी जज़बाती ज़िहानत के मालिक होते हैं | एक मिसाली जोड़ा सिर्फ़ अपने और बच्चों के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे खानदान के दूसरे हिस्सों पर भी अच्छे असर डालता है और आख़िर में एक अच्छे समाज के बनाने में किरदार अदा करता है। इसके बजाए अगर शौहर और बीवी की आपस में अनबन हो तो घर उन दोनों के लिए जहन्नम बनता ही है, सबसे ज़्यादा नुकसान बच्चों का होता है। उनके हवास (इन्द्रियाँ) लगातार नाख़ुशगवार मंज़रों की ज़द में रहते हैं। नकारात्मक जज़बात और नकारात्मक रवैयों के हंगामों के दरमियान जब

गज जात तन

उनके मासूम जज़बात परवान चढ़ रहे होते हैं, तो उनकी शख््सियतों में कमी रह जाती है। जज़बाती ज़िहानत कम हो जाती है। बचपन के नाख़ुशगवार तजरिबे ज़िन्दगी-भर उनका पीछा करते हैं। उनके अन्दर ऐसे रवैयों को परवान चढ़ाते हैं जो सारी ज़िन्दगी उनको नुक़सान पहुँचाते रहते हैं। एक . जोड़े के दरमियान तनाव, शौहर-बीवी के माँ-बाप, भाइयों, बहनों और उनके खानदानों पर भी असर डाल सकता है। इस तरह एक जोड़े का झगड़ा पूरे समाज का ज़ज्म बन सकता है।

हमारे मुल्क में शादीशुदा लोगों के झगड़ों की दर बढ़ती जा रही है। दस साल पहले हमारे मुल्क में एक हज़ार में से एक शादी टूटती थी अब यह दर बढ़कर पन्द्रह हो गई है। बड़े शहरों में पिछले कुछ सालों में तलाक़ की दर कई गुणा बढ़ गई है। केरला जैसे तरक्क़ीयाफ़ता राज्य में हर पाँच घंटों में एक शादी टूट रही है। मुसलमानों में भी सूरतेहाल बहुत अच्छी नहीं है। फ़ैमली अदालतों में मुसलमान जोड़ों के झगड़ों का फ़ीसद बढ़ता जा रहा है। यह एक बहुत बड़ी परेशानी है और हम सबकी ज़िम्मेदारी है कि इसपर काबू पाने की कोशिश करें।

अल्लाह ने शादीशुदा ज़िन्दगी के झगड़ों का हल यह बताया है कि पहले मियाँ-बीवी आपस में अपने झगड़े को खुशदिली के साथ और एक-दूसरे से माफ़ी-तलाफ़ी करते हुए हल कर लें और ऐसा हो सके तो किसी तीसरे आदमी की मदद लें, जिसे कुरआन का तहकीम का उसूल कहा जाता है। अल्लाह फ़रमाता है-

“अगर तुमको मियाँ-बीवी के दरमियान ताल्लुक़ात बिगड़ जाने का

डर हो तो एक फ़ैसला करनेवाला मर्द के रिश्तेदारों में से और एक

औरत के रिश्तेदारों में से तय करो, वे दोनों सुलह करना चाहेंगे

तो अल्लाह मिलाप की सूरत निकाल देगा।”

(कुरआन, सूरा-4 निसा, आयत-95)

यही तहकीम नए ज़माने में काउंसलिंग कहलाती है | अब काउंसलिंग

एक पूरी साइंस है और इसमें नए असरदार तरीक़ों की मदद से झगड़ों को

|... _ख़ानदानी खुशियों केसे हालिल की जाएं?

हल करने की कोशिश की जाती है। इस बात की ज़रूरत है कि काउंसलिंग के ऐसे इदारे मुस्लिम समाज में भी क़ायम हों। ईसाइयों में चर्च के अन्दर काउंसलिंग के इदारे होते हैं। यहाँ काउंसलिंग करनेवालों को ऊँचे दरजे की ट्रेनिंग दी जाती है। ज़रूरत इस बात की है कि हमारी मस्जिदों और दीनी मरकज़ों में भी ऐसे इदारे क्रायम हों और इन मसलों को हम इस्लामी शरीअत की रहनुमाई में और नए तरीक़ों की मदद से हल करें। इसलिए जो लोग मुसलमानों के दरमियान काउंसलिंग का काम करना चाहें, उनके लिए ज़रूरी है कि वे इस्लाम और इस्लामी शरीअत से भी अच्छी तरह वाक़िफ़ हों और काउंसलिंग के नए तरीक़ों की भी महारत रखें। इस मसले के शरई और दीनी पहलू पर पहले से तफ़सीलात मौजूद हैं। इस मज़मून में काउंसलिंग के फ़न की शुरुआती चीज़ों पर रौशनी डालने की कोशिश की गई है।

पिछले मज़मून (शादी से पहले काउंसलिंग) में मैंने शुऊर और लाशुऊर पर बातचीत की थी। अकसर झगड़ों की वजह लाशुऊर और उसके नतीजे में बननेवाला ख़ाका होता है। शादीशुदा ज़िन्दगी के झगड़ों की एक बड़ी वजह यह होती है कि शौहर और बीवी के ख़ाके एक-दूसरे से टकराते हैं। इसकी वज़ाहत नीचे दी गई मिसालों से होगी-

6) एक बीवी जो ज़िन्दगी-भर रिवायती घरानों में सास-बहू के झगड़े देखकर बड़ी हुई और ज़ालिम सासों के बेशुमार क़िस्से ज़िन्दगी-भर सुनती रही, उसका सास के बारे में तसव्वुर ही यह है कि वह एक ज़ालिम मख़लूक़ का नाम है। 'हर सास ज़ालिम होती है” इस यक्कीन की वजह से सास की कोई अच्छी बात वह देख ही नहीं पाती। इसके मुक़ाबले में शौहर का यह यक़ीन है कि बहू हमेशा सास के सिलसिले में नफ़रत ही के जज़बात रखती है। वह अपनी बीवी के जाइज़ मसलों को भी समझ नहीं पाता। अब जब भी सास का कोई मसला सामने आता है बीवी और शौहर में झगड़ा हो जाता है। इस झगड़े की वजह दोनों के अपने-अपने दावे हैं। इन बेदलील दावों की वजह से दोनों दो अलग इन्तिहाओं पर हैं। बीवी शौहर की माँ से सही मुहब्बत और ताल्लुक़ को समझ पा रही है और शौहर बीवी के मसलों को |

ख़ानदानी खुशियों कैसे हासिल की जाएँ?

6) बीवी अपने घर में बाप, भाई वगैरा को देखकर बड़ी हुई। उनकी शख़्सियत, किरदार और उनके मिज़ाज की वजह से मर्द का एक ख़ास तसव्वुर उसके लाशुऊर का हिस्सा बन गया। उस तसव्वुर से वह अपने शौहर को देखती है। जो ख़ूबियाँ उसने अपने बाप में देखी थीं वह शौहर में तलाश करती है। शौहर में हो सकता है दूसरी बहुत-सी ऐसी ख़ूबियाँ हों जो उसके बाप में नहीं हैं। लेकिन उसका लाशुऊर तो अपने बाप की शख््सियत के फ़ेम से हर मर्द को देखने और परखने का आदी हो गया. है। इसी तरह शौहर के ज़ेहन में बचपन की यादें अच्छी तरह महफ़ूज़ हैं कि उसकी माँ सुबह-सवेरे उठकर घर का काम शुरू कर देती थी। सारे घरवालों की ख़िदमत करती थी, क्गैरा। अब वह बीवी को भी इसी ख़ाके की मदद से परखना चाहता है।

यहाँ कुछ बातें मिसाल के तौर पर बयान की गई हैं। ऐसी सैकड़ों मिसालें दी जा सकती हैं। एक अच्छे काउंसलर का काम यह है कि वह झगड़ों का सबब लाशुऊर में ढूँढ़ने की कोशिश करे | खुशी की बात यह है कि अल्लाह ने लाशुऊर को बदलने और उसकी रीप्रोग्रामिंग करने का भी इमकान रखा है। काउंसलर का काम यह है कि शौहर और बीवी के लाशुऊर को इस तरह प्रोग्राम करे कि वे एक-दूसरे से मुहब्बत कर सकें।

मिसाल के तौर पर ऊपर की मिसालों में बीवी को अच्छी सासों की बेशुमार मिसालें बताई जाएँ और उसके लाशुऊर में ज़ालिम सास की जो तस्वीर बसी हुई है, उसे बदला जाए। या शौहर को बताया जाए कि ज़माने और हालात के फ़र्क़ की वजह से अब औरतों के काम करने की आदतों में भी फ़र्क्क गया है।

हमारे दिमाग़ की एक ख़ास बात यह है कि वह कभी-कभी हक़ीक़त्ों को बदलकर, उनके कुछ हिस्सों को मिटाकर या उन्हें आम (6८०5७) बनाकर क़बूल करता है। क़रिस्से और हक़ीक़त को हम देखते और सुनते हैं लेकिन वे हमारे ज़ेहन में हमारे मिज़ाज और तजरिबों के मुताबिक बैठ जाते हैं। वह कहानी हम सबने सुनी है कि एक हाथी जब अंधों के गाँव में गया तो किसी ने उसकी दुम पकड़ी तो उसके ज़ेहन में हाथी का तसब्युर एक

किए: ख़ानदानी ब्रानदानी खुशियों कैसे हासिल की जाएँ?

रस्सी की तरह बैठ गया और किसी ने पैर पकड़ा तो एक ड्रम की तरह | हम भी आमतौर पर चीज़ों और क्रिस्सों को इसी तरह देखते हैं। कुछ बातें क़बूल करते हैं और कुछ बातें छोड़ देते हैं। कुछ को आम बात बना देते हैं। यह ख़ास बात अल्लाह ने हमारे ही फ़ायदे के लिए बनाई है लेकिन हम इसका कभी ग़लत इस्तेमाल कर लेते हैं।

* हझक़ीक़ृत के कुछ हिस्सों को दिमाग़ मिटा देता है क्योंकि अगर दिमाग़ ऐसा करे तो हमारे लिए ज़िन्दगी मुश्किल हो जाए। हम रास्ता चलते हुए हर मंज़र, हर गाड़ी का नम्बर, हर दुकान का नाम याद रखें तो हमारी याददाश्त बोझल हो जाएगी और ज़रूरी बातों को याद रखना मुश्किल हो जाएगा। हादिसे, गम और परेशानियाँ हम भूलें तो ज़िन्दगी अजीरन हो जाएगी। लेकिन भूल जाने, नज़रन्दाज़ करने और मिटा देने की यह दिमागी सलाहियत नीचे दी गई मिसालों में झगड़े और गलत रवैये का सबब बनती है।

दिमाग पसन्दीदा लोगों की ख़ामियों को और नापसन्दीदा लोगों की ख़ूबियों को मिटा देता है। औरत को अपनी माँ की ख़ूबियाँ नज़र आती हैं, कमियाँ नज़र नहीं आतीं इसके मुक़ाबले में सास की ख़ूबियाँ नज़र नहीं आतीं। बीवी देखती है कि ऑफ़िस से आने के बाद शौहर उसकी बातों में दिलचस्पी नहीं ले रहा है, लेकिन यह हक़ीक़त उसका दिमाग मिटा देता है कि वह एक घंटा बस में सफ़र करके और दिन-भर काम करके लौटा है और उसको कुछ देर आराम की ज़रूरत है।

इसी तरह कभी-कभी दिमाग़ चीज़ों को बदलकर देखता है। बीवी के चेहरे पर किसी टेंशन की वजह से तनाव है, शौहर समझता है कि उसके आने से बीवी ख़ुश नहीं हुई। बीवी को कोई लतीफ़ा याद आया और उसने हँस दिया, शौहर समझता है कि उसके लिबास पर हँस रही है।

कभी-कभी दिमाग़ चीज़ों को आम बनाकर क़बूल करता है और वे ज़ेहन में बैठ जाती हैं और हमारे रवैयों पर असर डालती हैं। एक ख़ातून मेरे पास आईं जो बचपन में अपने बाप के ज़ुल्म का शिकार हुई थीं और

'ख़ानदानी खुशियाँ कैसे हासिल की जाएँ 44%

अब उनके दिमाग़ में तमाम मर्दों के बारे में एक आम तसव्वुर था। उन्हें शौहर से इसलिए लगाव नहीं था कि उनका ज़ेहन दुनिया के किसी मर्द को भी एक अच्छे इनसान की हैसियत से क़बूल करने के लिए तैयार नहीं था। जब तक उनके ज़ेहन की यह तस्वीर नहीं बदली जाएगी वे ख़ुशगवार शादीशुदा ज़िन्दगी नहीं गुज़ार सकतीं। कभी-कभी तो बड़ी दिलचस्प और बज़ाहिर मज़ेदार मिसालें सामने आती हैं। एक नौजवान को बचपन में अपने टीचर से, उसके ज़ुल्म.की वजह से, नफ़रत हो गई। वह लम्बी और गोरी थी, अब उसका ज़ेहन हर-लम्बी और गोरी औरत से नफ़रत करता है।

ये बातें आदमी अकसर जानता भी नहीं ।'यह सब लाशुऊर में होता है। मिसाल के तौर पर ऊपर की मिसाल में उस नौजवान को यह मालूम था कि उसे लम्बी और गोरी औरतों से नफ़रत है और यह मालूम था कि इसका कोई सबब है। बस इस तरह की कोई औरत सामने जाए तो उसके अन्दर नफ़रत की लहर दौड़ जाती थी। इस मामले की तह तक पहुँचना काउंसलर का काम है।

इसलिए काउंसलर का काम यह भी है कि वह शादी-शुदा झगड़ों का सबब शौहर और बीवी के ज़ेहन में बनी हुई तस्वीरों में तलाश करने की कोशिश करे। इन तस्वीरों को हम आसानी से काउंसलिंग की मदद से बदल सकते हैं।

झगड़ों की एक वजह कम्यूनिकेशन भी होता है। मसला कुछ नहीं होता लेकिन कम्यूनिकेशन की कमी की वजह से वह उलझ जाता है। हमारा ज़ेहन लफ़्ज़ों, लब लहजे, आवाज़ के उतार-चढ़ाव, चेहरे के तास्सुरात, इन सबका असर क़बूल करता है। यह असर ज़ेहन में बैठ जाता है और रवैयों को मुतास्सिर करने लगता है। एक बेख़याली में कहा हुआ लफ़्ज़ नश्तर बनकर दिल को छेद देता है। हमें पता नहीं चलता कि हमने अपने शौहर या बीवी के दिल का ख़ून कर दिया है। लेकिन क़त्ल की यह वारदात हो चुकी होती है। बाद में मुतास्सिर आदमी उस क़िस्से को या लफ़्ज़ को भूल जाता है, उसे याद भी नहीं रहता लेकिन उस क्िस्से ने जो दराड़ पैदा की

'अिध ाणणा ख़ानदानी खुशियों कैसे हासिल की जाएँ?

है, वह बाक़ी रहती है और ऐसी दराड़े धीरे-धीरे ताल्लुक्रात और जज़बात को बेरुखी का शिकार बनाती रहती हैं। कई बार कम्यूनिकेशन होने से भी मसले पैदा होते हैं। हम दिल की बात कह नहीं पाते | अपना नज़रिया समझा नहीं पाते। अपनी मजबूरियों और मुश्किलों का इज़हार नहीं कर पाते। कम्यूनिकेशन की यह कमी ग़लतफ़हमी पैदा करती है। ग़लतफ़हमियों का यह सिलसिला भी ताल्लुक़ात में दराड़ें पैदा करना शुरू करता है। एक अच्छा काउंसलर झगड़ों के हल के लिए कम्यूनिकेशन के मॉडल को भी समझता है। जो दराड़ें पैदा हुई हैं उन्हें पाटता है। उसकी तकनीकों की तफ़्सील को इस मज़मून में लिखा नहीं जा सकता है। लेकिन ऐसे तरीक़े मौजूद हैं जिनसे माज़ी (अतीत) की कम्यूनिकेशन की कमी और उसके नतीजे में पैदा होनेवाले मसलों को दूर किया जा सकता है। फिर वह आइंदा के लिए असरदार कम्यूनिकेशन की तरबियत भी देता है।

आप नीचे दिए गए केसों पर गौर कीजिए- केस नम्बर-

दिन-भर की मेहनत के बाद इरफ़ान शाम को घर लौटा | बाइक पर धूप में लम्बा सफ़र और हाथों में शॉपिंग के भारी बैगों की वजह से वह पसीने से लतपत था। उसकी बीवी शहाना ने दरवाज़ा खोला।

“आज भी आप लेट हो गए? आप समझते क्‍यों नहीं कि मैं घर में अकेली रहती हूँ!!”

. “मैं ऑफ़िस से बाज़ार गया था। तुमने कहा था कि यह ज़रूरी है। वहाँ से फिर लेबोरेट्री गया तुम्हारी रिपोर्टे लेने के लिए तुम्हें पता है वह कितनी दूर ह्ठै 7

“अच्छा इस पैक में क्‍या है?”

“तुम्हारे लिए एक छोटा-सा तोहफ़ा। यह परफ्यूम मुझे बहुत पसन्द आया। शेल्फ़ में नज़र आया तो ले लिया।”

“अच्छा! अच्छा! लेकिन मैं तो एक दूसरा फ्लोरल परफ्यूम लेना चाहती

म़ानदानी खुशियों कैसे हातिल की जाएं?

थी। अच्छा! तुम्हें मालूम है तुमने क्या किया? मेरा बॉडी लोशन फिर भूल आए।”

“ओह! सॉरी, कल लेता आऊँगा।”

“आप यह हमेशा करते हो, पता नहीं क्यों मेरी चीज़ें ही भूल आते हो।! केस नम्बर-2

अनीस और फ़रीहा एक मिसाल्ली जोड़ा थे। उनकी एक-दूसरे के लिए मुहब्बत जॉनिसारी पूरे खानदान में मशहूर थी और लोग इस बात पर उनसे रश्क करते थे। लेकिन इधर कुछ सालों से इस मिसाली ताल्लुक़ में दराड़ें आनी शुरू हो गईं। वजह थी उनका' सात साल का नटखट और शरारती बच्चा आतिफ़।

फ़रीहा का ख़याल है कि आतिफ़ बहुत शरारती है। उसके अन्दर नज़्म ज़ब्त (0००9॥7०) नहीं है। वह लापरवाही के साथ-साथ बदतमीज़ी भी करने लगा है। वह सोचती है कि अगर अभी कंट्रोल किया गया तो उसकी आदतें पुख्ता हो जाएँगी। वह उसके लिए उसूल-ज़ाब्ते बनाती है, सज़ाओं और इनामों का एलान करती है और हमेशा उसके पीछे रहती है। वह यह भी समझती है कि अनीस को इस मसले पर जो ध्यान देना चाहिए वह नहीं दे पा रहा है। वह कभी बच्चे की हिमायत करता है और कभी खामोश तमाशाई बना रहता है। कभी मुस्कुराते हुए माँ-बेटे की कश्मकश देखता रहता है। फ़रीहा महसूस करती है कि इससे आतिफ़ बेबाक बनता जा रहा है।

अनीस समझता है कि उसकी बीवी गैर-ज़रूरी तौर पर एक छोटे मसले को बड़ा बना रही है। आतिफ़ का रवैया उसकी उम्र के लिहाज़ से है। उम्र के साथ वह ख़ुद सलीक़ा और अदब सीख जाएगा। लगातार पीछे पड़े रहने और रात-दिन झक-झक और किचकिच करने से सुधार नहीं होगा, सूरतेहाल और ख़राब होगी। बार-बार दख़ल देने की वह ज़रूरत महसूस नहीं करता, बल्कि उसे नुक़सानदेह समझता है। ये सब बातें वह समझता है लेकिन बीवी की हस्सास तबीयत के ख़ौफ़ से उसे बोल नहीं पाता। *

7७७७४ द़लवते कपनो झेल रकत की जे

इन दोनों केसों पर गौर कीजिए और सोचिए कि इनका हल क्‍या हो सकता है?

आप गौर करें तो महसूस करेंगे कि पहले केस में बुनियादी मसला यह है कि बीवी शौहर की दुनिया को देख ही नहीं पा रही है, उसके मसलों को देख पा रही है, उसके जज़बात को समझ पा रही है। यहाँ काउंसलर का अप्रोच यही होना चाहिए कि उसकी सोच बड़ी करे। जो बातें वह नज़रन्दाज़ कर रही है, उसके दिमाग को उन बातों को समझने और उन्हें महसूस करने के लायक़ बनाए। शौहर की जगह ख़ुद को रखकर देखने, सुनने और ग़ौर करने की सलाहियत उसके अन्दर जगाए।

दूसरे केस में दो मसले हैं। एक तो यह कि एक ही मसले को दोनों दो अलग-अलग नज़रिए से देख रहे हैं और दूसरे यह कि उसका बुनियादी सबब कम्यूनिकेशन की कमी है। एक-दूसरे से शदीद मुहब्बत करनेवाले मियाँ-बीवी के दरमियान उनकी मुहब्बत ही कम्यूनिकेशन की कमी पैदा कर रही है। शौहर अपनी बात बीवी को कह नहीं पा रहा है। उनके मसले का हल यह है कि काउंसलर दोनों के दरमियान सेहतमन्द बातचीत की राह हमवार करे और दोनों खुले दिल से बात करके अपने बच्चे की तरबियत के किसी प्रोग्राम पर, एक राय हो जाएँ। यह होगा तो उनका मसला हल हो जाएगा।

इस बहस की रौशनी में असरदार काउंसलिंग के नीचे दिए गए तरीक़े हो सकते हैं- -

(7) पहले झगड़े की वजहों को सुनिए | शौहर और बीवी से अलग-अलग भी सुनिए और दोनों को साथ-साथ बिठाकर भी सुनिए। समझने की कोशिश कीजिए कि असल मसला क्‍या है।

(2) उन ख़यालात को समझने की कोशिश कीजिए जो दोनों के दिमाग़ों में बैठे हुए हैं। अगर कोई ग़लत तसव्वुर किसी ग़लत रवैये का सबब बन रहा है तो क़िस्सों और मिसालों के ज़रिए उन्हें बदलिए और नए

. हझक़ीक़त पर मब्नी तसब्युरात ज़ेहन में बैठाइए | मिसाल के तौर पर अगर बीवी के ज़ेहन में यह बात बैठी हुई है कि हर सास ज़ालिम

ख़ानदानी खुशियों कैसे हासिल की जाएं?...........ः

होती है तो उसे अच्छी सासों की दसियों मिसालें सुनाइए और कोशिश कीजिए कि उसका तसव्वुर ठीक हो जाए। यह काम एक माहिर काउंसलर ही के ज़रिए होता है। यानी काउंसलर की रहनुमाई में बीवी खुद ऐसी मिसालों को याद करती है। अपने ग़लत तसव्बुर को बदलती है और उसके ज़ेहन में मुसबत (सकारात्मक) तब्दीली पैदा हो जाती है।

खुशगवार दिनों की याद और तजरिबे को ताज़ा कराइए। यह झगड़े के हल और शौहर-बीवी के दरमियान नफ़सियाती दूरी ख़त्म करने का आसान तरीक़ा है। अगर शौहर और बीवी के बीच कभी बहुत अच्छे ताल्लुक़ात रहे हों, तो उन यादों को ताज़ा करने का मौक़ा दीजिए। उन्हें उन लम्हों में लेकर जाइए एन-एल.पी. वौगैरा में ऐसी यादों को ताज़ा कराके एंकरिंग करते हैं। ये ख़ुशगवार यादें बहुत फ़ायदेमन्द मरहम होती हैं जिससे रिश्तों की दराड़ और ताल्लुक़ात के ज़स्मों को आसानी से भरा जा सकता है। एक अच्छा काउंसलर शौहर और बीवी को उन लम्हों में पहुँचा देता है जब वे एक-दूसरे पर जान छिड़कते थे।

एक-दूसरे की खूबियों और एहसानों को याद करना और उन्हें ज़ेहन में ताज़ा कराना भी एक असरदार नफ़सियाती तरीक़ा है। काउंसलर सवालों की मदद से शौहर के ज़ेहन में बीवी की तमाम ख़ूबियों को याद कराए। हर वह ख़ूबी जिसे उसने कभी पसन्द किया हो, चाहे उसका ताल्लुक़ उसके मिज़ाज और रवैये से हो या हुस्न खूबसूरती से, शौहर के लिए उसकी मुहब्बत और ख़ुलूस से हो या किसी सलाहियत क़ाबिलियत से हर अच्छी चीज़ को वह याद करे। जो रवैये और कमियाँ ताल्लुक़ात में खराबी का सबब बन रही हैं, उनक़ी आमतौर पर दो क्िस्में होती हैं-

कुछ तो वे बातें होती हैं जो गलत गुमान या गलत तसब्वुर की वजह से होती हैं। उनका ज़िक्र ऊपर गया है। लाशुऊर की

ख़ानदानी खुशियाँ कैसे हासिल की जाएँ?

तरबियत के ज़रिए उन्हें बदला जा सकता है।

कुछ मिज़ाज की मुस्तक़िल कमज़ोरियाँ होती हैं। कोई शौहर सुस्त मिज़ाज है, कोई बीवी बहुत बातूनी है, ऐसी कमज़ोरियाँ अगर ताल्लुक़ात को ख़राब करने का सबब बन रही हैं तो उन कमज़ोरियों को दूर करना फ़ौरी तौर पर मुमकिन नहीं होता इस सिलसिले में क़ुरआनी हिदायत यह है-

“अगर वे तुम्हें नापसन्द हों तो हो सकता है कि एक चीज़ तुम्हें

पसन्द हो, मगर अल्लाह ने इसी में, बहुत कुछ-भलाई रख दी

हो” (कुरआन, सूरा-4 निसा, आयत-9)

यही रवैया काउंसलर को भी अपनाना चाहिए उसे शौहर या बीवी के ज़ेहन को इस मक़सद के लिए तैयार करना चाहिए कि वह इस कमज़ोरी को नज़रन्दाज़ करे, उसे भुला दे। ज़ेहन से उसको मिटा देने के नफ़सियाती तरीक़े मौजूद हैं। उन तरीक़ों का इस्तेमाल करके उसे मिटा देना चाहिए और कोशिश करनी चाहिए कि ज़ेहन बीवी या शौहर की शख़्सियत के दूसरे नेक और अच्छे पहलुओं पर मुतवज्जह हो जाए।

(6) कुछ रवैये किसी ख़ास घटना या ग़लती की पैदावार होते हैं। माज़ी (अतीत) की सफ़ाई भविष्य के बेहतर ताल्लुक़ात के लिए ज़रूरी होती है। माज़ी की सफ़ाई के लिए ज़रूरी है कि काउंसलर शौहर और बीवी को इस पोज़ीशन पर लेकर आए कि वे अपनी ग़लतियों को अच्छी तरह समझ जाएँ और संजींदगी के साथ एक-दूसरे से माफ़ी माँगकर उसकी भरपाई के लिए तैयार हो जाएँ। माफ़ी सिर्फ़ माफ़ी के बोल का नाम नहीं है, बल्कि यह एक तरीक़ा है जिसके ज़रिए आप सामनेवाले के ज़ेहन और जज़बात को उस ग़लती के असरात से पाक करते हैं जो आपसे हुई है। संजीदा माफ़ी के नीचे दिए गए तरीक़ों पर काउंसलर का ध्यान होना चाहिए-

(क) जो ग़लती आपने की है उसका पूरा तज़किरा करते हुए साफ़ लफ़्ज़ों में माफ़ी माँगिर। कहिए कि फ़ुलाँ-फ़ुलाँ गलती के लिए मैं शरमिन्दा हूँ और माफ़ी चाहता हूँ।

ख़ानदानी खुशियों कैसे हातिल की जाएं।...........

(ख) बताइए कि इस ग़लती का दूसरे पर क्या असर हुआ या हो सकता है। इसको भी तसलीम कीजिए। ह॒

(ग) इस ग़लती को दोबारा करने या रवैये में सुधार की यक्नीनदिहानी कराइए।

(7) इन सारे मरहलों के बाद काउंसलर को इस बात की कोशिश करनी चाहिए कि दोनों अच्छे भविष्य के किसी ख़ाके पर एक मत हो जाएँ। दोनों एक-दूसरे से अपनी उम्मीदें लिखें। काउंसलर कोशिश करे कि ये उम्मीदें कम-से-कम हों और अमल करने के क़ाबिल और हक़ीक़त पर मब्नी हों। उन उम्मीदों को पूरा करने के मंसूबे पर भी दोनों एक मत हो जाएँ। काउंसलर उम्मीदों और भविष्य के पसन्दीदा ख़ाके के सिलसिले में दोनों के ज़ेहनों को तैयार करे।

ये कुछ उसूली बातें यहाँ बताई गई हैं। इल्मे-नफ़सियात (मनोविज्ञान) और एलः.एन-पी. कौरा में इनमें से हर एक के लिए मुस्तक़िल तकनीकें मौजूद हैं। एक अच्छा कोच पहले दोनों से ताल्लुक़ बनाता है, उसके मसले को समझता है और फिर उनके बेहतर भविष्य के लिए उनके ज़ेहनों को फिर से तैयार करता है। जो लोग काउंसलिंग के काम में मसरूफ़ हैं उन्हें ज़रूर ये तरीक्रे सीखने चाहिएँ।

70 एज: ख़ानदानी ब्रानदानी खुशियों कैसे हासिल की जाएँ?

ख़ानदान

नई दुल्हन का स्वागत

एक ख़ुशगवार ख़ानदान के लिए जहाँ यह ज़रूरी है कि दूल्हा-दुल्हन के बीच बड़े मज़बूत और ख़ुशगवार ताल्लुक़ात बनें, वहीं यह भी ज़रूरी है कि दोनों अपने नए रिश्तेदारों यानी ससुराली रिश्तेदारों से भी मुहब्बत और एतिमाद की बुनियादों पर ताल्लुक़ात बनाएँ ख़ास तौर से हिन्दुस्तानी समाज में सास और बहू के दरमियान ताल्लुक़ की बड़ी अहमियत है। घर के माहौल को ख़ुशगवार बनाने में इस ताल्लुक़ का बड़ा अहम रोल होता है। अगर सास अपनी बहू को बेटी की तरह और बहू अपनी सास को माँ का मक़ाम देने में कामयाब हो जाए तो घर सुकून की जगह बन जाता है। बीवी के शौहर से ताल्लुक़ात भी बेहद मज़बूत हो जाते हैं। बच्चों को एक पुरसुकून घर और पिछली दो नस्‍्लों की मुहब्बत और मेहरबानी का फ़ायदा मिल जाता है। इसके बरखिलाफ़ यह रिश्ता तनाव का शिकार हो जाए तो घर में तरह-तरह के मसले जन्म लेने लगते हैं। बेएतिमादी और शक का माहौल फैल जाता है। शिकवे-शिकायतें और उससे आगे बढ़कर फ़ितने और साज़िशें डेरा डालने लगती हैं। इसका ख़राब असर ख़ुद शौहर और बीवी के ताल्लुक़ात में भी पड़ता है। अकसर ख़ानदानी झगड़ों की जड़ यही नाज़ुक ताल्लुक़ होता है। इस ताल्लुक़ को निभाने में शौहर और बीवी का भी अहम रोल होता है और शौहर की माँ का भी। इससे पहले 'शादी से पहले काउंसलिंग” के तहत इस - मसले के बारे में उन बातों को बताया गया है जिनका ताल्लुक़ शौहर या बीवी से होता है। यहाँ उन बातों पर रौशनी डाली जा रही है जो दूसरे ससुराली रिश्तेदारों, ख़ास तौर से सास के बारे में हैं।

दुनिया की हर माँ अपने बेटे की दुल्हन का खुली बाँहों के साथ पुरजोश स्वागत करना चाहती है। जिस माँ ने अपने बेटे के सुख के लिए दुनिया की

ख़ानदानी खुशियों कैसै हासिल की जाएँ?

हर मुसीबत बरदाश्त की और हर तरह की क़ुरबानी दी, वह कैसे यह चाह सकती है कि उसकी शादीशुदा ज़िन्दगी तलख्रियों की शिकार हो जाए। हर माँ अपनी होनेवाली बहू के बारे में सपने देखती है। बड़े अरमानों के साथ बेटे की शादी की तैयारी करती है। शहर-शहर घूमकर दुल्हन का चुनाव करती है। शादी की तैयारियाँ करती है और बड़ी उम्मीदों और खुशियों के साथ इस नए मेहमान का घर में स्वागत करती है।

सवाल यह है कि आख़िर इसके बाद क्‍या हो जाता है कि अपने अरमानों की मरकज़, अपनी पसन्द से चुनी हुई, उस खूबसूरत लड़की से अचानक उसके झगड़े शुरू हो जाते हैं? और कभी-कभी ये झगड़े इस हद को पहुँच जाते हैं कि घर टूटने की नौबत जाती है। इस मसले की नफ़सियाती वजहों को हम समझ जाएँ और थोड़ा समझदारी से काम लें तो बहुत आसानी से इसपर क़ाबू पाया जा सकता है। यक़ीनन इस सिलसिले में सास को अपना रोल अदा करना है और बहू को भी अपना रोल अदा करना है। लेकिन मौज़ू के लिहाज़ से अभी हम सास और ससुराली रिश्तेदारों के मुनासिब रोल को बताएँगे-

(7) दुल्हन की पूरी शख्सियत का स्वागत कीजिए

आप दुल्हन की सूरत में एक नई शख््सियत का अपने घर में स्वागत करने जा रही हैं। इनसानी शख्सियत सिर्फ़ जिस्मानी वुजूद का नाम नहीं है। हर शख्सियत की अपनी ख़ासियत होती है। अच्छी भी और बुरी भी। शस्सियत के अन्दर जिस्म के साथ-साथ सलाहियतें, सिफ़्तें, जज़बात, मिज़ाज, आदतें वगैरा भी होती हैं। यह लड़की जो आपके घर आई है, एक खास माहौल में इसकी परवरिश हुई है ऐसा बिलकुल मुमकिन है कि उसके बहुत-से रिवाज आपके घर के रिवाजों से अलग, बल्कि टकरा रहे हों। उसकी आदतें अलग हों। खाने-पकाने के तौर-तरीक़े अलग हों। पसन्द अलग हो। शख़्सियत के स्वागत का मतलब इन सब चीज़ों का स्वागत है। यही चीज़ें आपकी बहू की शख़्सियत का हिस्सा हैं। इन ही चीज़ों के साथ उसकी परवरिश हुई है। आपकी यह ज़िम्मेदारी है कि उसकी शख्सियत का एहतिराम करें। उसे अपनी पसन्द की ज़िन्दगी गुज़ारने का हक़ दें। उसे

कक ख़ानदानी ब्ानदानी खुशियों कैसे हासिल की जाएँ?

उसकी पसन्द का खाना मिले | अपनी आदत के मुताबिक सोने-जागने और रहने-सहने की आसानी मिले। अकसर झगड़े इस बात को समझने की वजह से पैदा होते हैं। “हमारे यहाँ ऐसा नहीं होता” और “हम इस तरह नहीं इस तरह रहते हैं।” ऐसे जुमले का बार-बार सुनना आपके ख़ानदान में आई उस मासूम नई-नवेली दुल्हन के अन्दर अजनबियत का एहसास पैदा करती है। इन जुमलों की गूँज उसके लाशुऊर में यह एहसास पैदा करती है कि वह इस घर में अजनबी है और यहाँ के माहौल से नामानूस है।

: “यह तो तुमने बिलकुल नए तरीक़े से बहुत अच्छी चीज़ पकाई है,” “बहुत ख़ूब! यह तो अच्छा तरीक़ा है,” “वाह! तुम्हारे घर का यह तरीक़ा तो बहुत ही ख़ूब है /” अगर बहू के अलग तौर-तरीक़ों के सिलसिले में यह अप्रोच आप अपनाएँ तो वह ख़ुद को घर की अहम सदस्य तसव्युर करेगी। अपनी अच्छी चीज़ों से आपके घर को मालामाल करेगी और आपके घर के रिवाज भी सीखेगी और अपनाएगी। अगर आप दुल्हन की पूरी शख़्सियत का, उसके मिज़ाज की सारी ख़ासियतों के साथ उसका स्वागत करने के लिए ख़ुद को तैयार कर लें और उसकी उन सारी बातों को ख़ुशदिली से क़बूल कर लें जो शरीअत या अख़लाक़ के उसूलों के लिहाज़ से ग़लत हों, तो “इन शाअल्लाह' झगड़ों के ज़्यादातर इमकान ख़त्म हो जाएँगे।

(2) अब आपका बेटा सिर्फ़ बेटा नहीं रहा, अपनी बीवी का शौहर भी है और उन दोनों की अपनी फ़ैमली भी है।

अकसर माएँ अपनी बहू का स्वागत करते हुए यह भूल जाती हैं कि वे अपने बेटे की दुल्हन का स्वागत कर रही हैं। यह लड़की अब आपके बेटे की ज़िन्दगी का अहम हिस्सा, बल्कि उसकी पूरक बननेवाली है। आपके बेटे का लिबास और उसके लिए सुकून की वजह बननेवाली है। वैसे ही जैसे कभी आप अपने शौहर की ज़िन्दगी में दाखिल हुई थीं। अभी तक आपके बेटे की शख्सियत पूरी तरह आपके साथ जुड़ी हुई थी, अब उसकी ज़िन्दगी में उसकी दुल्हन आई है जो उसके वक्त का भी हिस्सा लेगी और उसकी दिलचस्पियों का भी। ये दोनों मिलकर अपना एक ख़ानदान बनाएँगे। इस जोड़े को तंहाई का वक्त भी चाहिए होगा। उनके बहुत-से राज़ भी होंगे।

खानदानी खुशियों केसे हसित की जाएं?

बहुत-से फ़ैसले ये दोनों मिलकर करेंगे समझदार सास अपने बेटे और बहू की इन ज़रूरतों को समझती है। वह इस बात के लिए ज़ेहनी और जज़बाती तौर पर तैयार रहती है कि अब उसके बेटे के साथ ताल्लुक़ात का एक नया दौर शरू हो रहा है। इसका यह मतलब नहीं है कि बेटे के साथ ताल्लुक़ कमज़ोर हो रहा है, मतलब सिर्फ़ यह है कि उसकी हैसियत बदल गई है। आपका बेटा जब आपके पेट में था तो ताल्लुक़ की हैसियत कुछ और थी, जब दूध पीने लगा तो हैसियत कुछ और हो गई, इसी तरह बचपन, लड़कपन, जवानी, हर -मरहले की हैसियत कुछ और थी। हर मरहले के तक़ाज़े अलग थे। बिलकुल इसी तरह अब वह शौहर बन गया है तो ताल्लुक़ की हैसियत में कुछ बदलाव आएगा। इस बदले हुए ताल्लुक़ को समझे बगैर आप उसका हक़ अदा नहीं कर सकतीं अच्छी और समझदार माँ अपने बेटे और बहू को आज़ादी देती है। गैर-ज़रूरी मश्वरे नहीं देती | उनकी हर बात में टाँग अड़ाने की कोशिश नहीं करती, उनके निजी वक्तों में दख़लन्दाज़ी करती है।

जब पोते-पोतियाँ पैदा हों तो यह समझने की ज़रूरत है कि आपके बेटे और बहू को उनकी तरबियत तालीम के बारे में ज़रूरी फ़ैसले करने का हक़ हासिल है। उन्हें अच्छे मश्वरे ज़रूर दीजिए। उनकी रहनुमाई भी कीजिए | लेकिन उनका यह हक़ भी तस्लीम कीजिए कि अपने बच्चों के बारे में वे फ़ैसला कर सकें। |

(3) मेल-जोल पैदा करना (२४9एणा 8प]079९)

अपनी बहू को अपना दोस्त बनाइए नातजरिबेकार कम उम्र लड़की के मुक़ाबले में आप इसकी ज़्यादा सलाहियत रखती हैं कि उसका दिल जीतकर उसे अपना बेहतरीन दोस्त बनाएँ। दोस्ती या मेल-जोल एक-दूसरे के साथ काम में साझीदार बनने से तरक्की करता है। अपने और बहू के दरमियान कुछ ऐसी चीज़ें तलाश करें जो आपमें और उसमें एक हों | हो सकता है कुछ शौक़ एक हों। उसे पौधे लगाने का शौक़ हो और आपको भी। रंगों की पसन्द एक जैसी हो | किसी ख़ास शख्स की तक़रीरें पसन्द हों। तलाश करेंगी तो ऐसी कई चीज़ें मिल जाएँगी जो आपके और आपकी बहू के दरमियान

4299 "छत? ख़ानदानी बानदानी खुशियों कैसे हासिल की जाएँ?

एक हों। ताल्लुक़ात इन ही चीज़ों से मज़बूत होते हैं। जिन कामों में इस्तिलाफ़ है उनको अलग-अलग करना और एक-दूसरे की पसन्द का एहतिराम करना और जिन कामों में पसन्द एक हैं उनको मिल-जुलकर पूरा करना और उनके ज़रिए रिश्तों को मज़बूत बनाना, यही अच्छे ताल्लुक़ात का बेहतरीन फ़ॉरमूला है। जब दिलचस्पियों के बारे में मालूम हो जाए तो उसे एक-दूसरे से जुड़ने की बुनियाद बना लीजिए | मिल-जुलकर पौधे लगाइए। पसनन्‍्दीदा लेखक की ताज़ा किताब पर एक-दूसरे की राय लीजिए। तक़रीर मिलकर सुनिए और उसपर बातचीत कीजिए |

(4) तारीफ़ और दिलजोई

शादी एक लड़की के लिए बहुत जज़बाती मरहला होता है। जहाँ वह ज़िन्दगी की सबसे बड़ी ख़ुशी से हमकिनार होती है, वहीं माँ-बाप, भाई-बहन, घर-बार, दोस्त और अपनी ज़िन्दगी की तमाम चीज़ों को छोड़कर आपके घर चली आती है। एक अजनबी घर में, एक अजनबी साथी के साथ ज़िन्दगी का नया सफ़र शुरू करते हुए उसके दिल में बहुत-से डर और अन्‍्देशे भी होते हैं। आपको समझना चाहिए कि माँ-बाप और भाई-बहनों के लाड-प्यार में पली-बढ़ी यह मासूम लड़की अपनी ज़िन्दगी के निहायत अहम जज़बाती मरहले से गुज़र रही है। इस मरहले में उससे गलतियाँ होना मुमकिन हैं और उसको भरपूर जज़बाती सहारे और दिलजोई की ज़रूरत है। यह काम आप ही कर सकती हैं।

उसको भरपूर मुहब्बत दीजिए। दिल खोलकर तारीफ़ कीजिए। उसकी तमाम अच्छी आदतों की भरपूर तारीफ़ कीजिए | खाना पकाए तो खाने की तारीफ़ कीजिए घर की सजावट करे तो उसकी तस्वीरें शेयर कीजिए | इसके अलावा उसके शौहर के सामने, माँ-बाप के सामने, अपनी बेटियों और दूसरी बहुओं के सामने भी उसकी अच्छी आदतों के गुन गाइए (लेकिन दूसरी बहुओं की भी तारीफ़ करना मत भूलिए)। आदमी अपने अलावा अपने चाहनेवालों की भी क़द्र चाहता है। उसके माँ-बाप और भाई-बहनों का अच्छे अलफ़ाज़ में तज़किरा कीजिए उनको भरपूर एहतिराम, इज़्ज़त और मुहब्बत दीजिए.। उनकी अच्छी बातों की तारीफ़ कीजिए इस जज़बाती मरहले में

खानदानी खुशियों कैसे हासिल की जाएं?

आपका यह अच्छा सुलूक उसके मासूम दिल पर हमेशा के लिए असर छोड़ेगा। फिर वह भी आपको टूटकर चाहने लगेगी।

(5) सुधार तरबियत के ग़लत तरीक़ों से होशियार रहिए।

बेशक आप ख़ानदान की बड़ी-बुज़ुर्ग हैं। बहू में कुछ कमज़ोरियाँ हैं तो उनका सुधार आपकी ज़िम्मेदारी है। बहू को अपने ख़ानदान के तौर-तरीक़ों से भी आप वाक़िफ़ कराना चाहती हैं, इसमें भी कोई बुरी बात नहीं है। लेकिन इस मक़सद को हासिल करते हुए एहतियात से काम लेना और नफ़सियात के उसूलों का लिहाज़ रखना ज़रूरी है, ख़ास तौर से इस वजह से कि यह रिश्ता बहुत नाज़ुक भी है और बहुत बदनाम भी | अच्छी नीयत के साथ की गई आपकी कोशिश भी कभी बहुत ख़तरनाक नतीजे पैदा कर सकती है। सुधार का काम धीरे-धीरे ही हो सकता है, इसमें कोई जल्दबाज़ी नहीं करनी चाहिए। आपकी बहू एक बालिग इनसान है। हो सकता है कि आपसे ज़्यादा पढ़ी-लिखी हो | हमारे समाज ने उसके मासूम ज़ेहन में सास की एक ज़ालिम इमेज भी बना रखी है। वह अपने खानदान और ख़ानदान की रिवायतों वगैरा को लेकर हस्सास भी है। समझदार सास सुधार का काम करते हुए इन सब बातों का लिहाज़ भी रखती है। सुधार का काम धीरे- धीरे और मुनासिब मौक़े का लिहाज़ रखते हुए नरमी और प्यार से बातचीत करके होता है। जली-कटी बातें, गैर-ज़रूरी तौर पर बहू के माँ-बाप या खानदान की बातें करना वगैरा सुधार के काम नहीं आते, इनसे सिर्फ़ रिश्ते खराब होते हैं। मेरे पास जो केस आते हैं उनकी बुनियाद पर मैं कह सकती हूँ कि सास-बहू के रिश्ते की ख़राबी में 80 प्रतिशत रोल गैर-ज़रूरी जली-कटी बातों से होता है| इसी तरह कोशिश कीजिए कि अपनी बहू की शिकायत कभी बेटे से करें। इससे इस खानदान के तीन लोगों के एक-दूसरे से रिश्ते ख़राब होने का डर पैदा होता है। यह आपकी बहू और आपकी बेटी है। उससे मुनासिब मौक़ा देखकर और मुनासिब ज़बान और लहजे का इस्तेमाल करते हुए सीधे बात कीजिए। ..

बातें तो और भी बहुत हो सकती हैं। लेकिन इन पाँच बातों पर भी हम ध्यान दे सकें तो 'इन शाअल्लाह” हमारे घर जन्नत का नमूना बन जाएँगे।

नर जम गत लत कि लक

बुजुर्गों के नफ़सियाती मसले

अल्लाह ने इनसानी समाज और तमदूदुन (संस्कृति) की खूबसूरती जिन चीज़ों में रखी है,, उनमें एक अहम चीज़ हर चीज़ का अलग-अलग क़्िस्म होना है। जिस तरह समाज में मर्दों और औरतों, दोनों का वुजूद ज़रूरी है, उसी तरह हर उम्र के लोगों का वुजूद भी ज़रूरी है। तमाम उम्र के लोग समाज की ज़रूरत हैं और हर उम्र से मुताल्लिक़ गरोह के साथ समाज और तमदूदुन का कोई-न-कोई अहम रोल जुड़ा है। दूध पीते बच्चों की दिल खुश करनेवाली मुस्कुराहटें, छोटे बच्चों की तोतली बातें और मासूम शरारतें, स्कूल जानेवाले बच्चों का शोर-शराबा और हंगामा, इन सबके बिना हमारा समाज कितना बेमानी, बेरंग और बदसूरत बन जाएगा! जवानी ज़िन्दगी की ख़ूबसूरती है। नौजवानों का जोश-खरोश और नौजवान लड़कियों की जवानी खूबसूरती अदब (साहित्य) और कला का हमेशा बहुत ज़्यादा पसन्दीदा विषय रही है। बिलकुल इसी तरह सफ़ेद बाल, झुर्रियों से भरी पेशानियाँ और बावक़ार और रोबदार नूरानी चेहरे इनसानी तमदूदुन के लिए ज़रूरी हैं। अल्लाह ने इस उम्र के लोगों के ज़िम्मे भी समाज के बहुत-से काम लगा रखे हैं और ये लोग ख़ामोशी और गैर-महसूस तरीक़े से अपनी ये ज़िम्मेदारियाँ पूरी करते रहते हैं। हमारे बुजुर्ग हमारी रिवायतों की हिफ़ाज़त करनेवाले होते हैं। वे हमें सदियों के इनसानी तजरिबों की विरासत से जोड़ते हैं। वे बरगद की वह घनी छाँव होते हैं जिसकी ज़रूरत का एहसास भागते-दौड़ते वक्त नहीं होता लेकिन जब यह भाग-दौड़ थका देती है, गिरा देती है, ज़ख़्मी कर देती है तो इस छाँव के सिवा कोई और आसरा नहीं होता। हमारे बुजुर्ग हमें जोड़ते हैं। हमारे मसले अपनी तदबीरों से हल करते हैं, हमारा हौसला बढ़ाते हैं और गलतियों पर टोकते हैं। वे हमारी गाड़ी के ब्रेक, गियर और क्लच होते

'ख़ानदानी खुशियाँ कैसे हासिल की जाएँ? . ४7

हैं, जो हों तो तेज़ रफ़्तार एक्सीलेटर हमारी गाड़ी को हादसे से दोचार कर दे।

नए ज़माने की बदक़्रिस्मतियों में से एक बड़ी बदक़िस्मती यह है कि बुज्ुगों का यह रिवायती रोल बहुत कमज़ोर हो गया है। पुराने ज़माने में बुजुर्गों को घर और समाज में बहुत ज़्यादा अहमियत हासिल थी। घरों में होनेवाली ख़ुशी के मौक़े या शादी-ब्याह, मआशी सरगर्मी वगैरा के ताल्लुक़ से कोई भी फ़ैसला सामने होता तो बुजुर्गों का मश्वरा और उनकी रज़ामन्दी ज़रूरी समझी जाती थी। बुजुर्गों के पास जो जानकारी और तजरिबा होता है उसको बहुत ज़्यादा. अहमियत दी जाती थी। कारोबार और घर के बाहर के मसलों में बुज़ुर्ग मर्दों की राय अहमियत रखती थी तो बुजुर्ग औरतों की राय के कौर किचन, ख़ानादारी, बच्चों की सेहत कौरा के मसले हल नहीं हो पाते थे। लेकिन आजकल के दौर में माल्ूमात की बहुतात और इंटरनेट की वजह से बुज्षुगों से मश्वरा लेना लोग या तो कम कर चुके हैं या बिलकुल ही बन्द कर चुके हैं। ज़िन्दगी की तेज़ रफ़्तारी ने नस्‍्त्रों के बीच की दूरी (0००७४४०॥ (80) को बहुत ज़्यादा बढ़ा दिया है। तरक्क़ी के नाम पर जो समाजी और मआशी (आर्थिक) तब्दीली पैदा हो रही है उसका सबसे ज़्यादा बुरा असर घर के बुजुर्ग लोगों पर पड़ा है। मआशी तरक़क़ी के लिए बच्चे बड़े शहरों का रुख करते हैं या मुल्क से बाहर का। बहुत-से दूसरे कामों की वजह से माँ-बाप उनके साथ जा नहीं पाते | इधर से उधर जगह बदलनेवाले बच्चे भी इस नई सूरतेहाल यानी एकल परिवार (एप०५» एथा>) के आदी हो जाते हैं। माँ-बाप वहाँ जाएँ भी तो ज़िन्दगी के इस नए तरीक़े को कबूल नहीं कर पाते तरवृक़ीयाफ़्ता मुल्कों की ओल्ड एज होम्ज़ (00 48७ प्रण7०७) की बुराई हमारे मुल्क में भी घुस आई है। इस तरह समाज का यह बहुत-ही क़ीमती हिस्सा अब सख्त ज़ुल्म का शिकार हो गया है।

एक सर्वे के मुताबिक जो कि 992 ई. में किया गया था ऐसे बुजुर्ग जो अपने बच्चों से दूर रहकर ज़िन्दगी गुज़ार रहे हैं उनकी तादाद 9 प्रतिशत थी। 2006 में यह तादाद बढ़कर 9 प्रतिशत तक पहुँच गई थी।

एक ज़माना वह था जहाँ बच्चे इज़त और अदब की वजह से अपने

के आल मल ख़ानदानी खुशियों कैसे हासिल की जाएँ?

बड़ों से बात करने से भी डरते थे कि कहीं ऐसी कोई बात ज़बान से निकल जाए कि माँ-बाप का दिल दुखे और आज हालात ऐसे हैं कि बच्चों के पास अपने माँ-बाप के लिए वक़्त नहीं है। बुज्लुगों की इस बुरी हालत की एक अहम वजह लाइफ़ स्टाइल भी है। हिन्दुस्तान में तेज़ी से बढ़ते हुए मगरिबी ज़िन्दगी के तौर-तरीक़ों और कल्वर ने बुज़ुर्गों के लिए बहुत सारी मुश्किलें पैदा कर दी हैं। नौजवान नस्ल जहाँ बुजुर्गों की ख़िदमत को अपनी ज़िम्मेदारी नहीं समझती वहीं बुजुर्ग माँ-बाप भी बच्चों के बदले हुए ज़िन्दगी के तौर-तरीक़े और नए ज़माने की मजबूरियों को नहीं समझ पाते, इस तरह दोनों नसों में दूरियाँ बढ़ती जा रही हैं। बुजुर्गों की हालत को सामने रखते हुए हिन्दुस्तानी हुकूमत ने 2007 ई. में एक क़ानून लागू किया जिसमें यह तय पाया कि तमाम बच्चे अपने माँ-बाप का ख़याल रखें फिर 2008 में माँ-बाप से लापरवाही बरतनेवाले बच्चों के लिए सज़ा भी तय पाई। लेकिन सिर्फ़ क़ानूनी तदबीरों के ज़रिए बुजुर्गों के मसले हल नहीं हो सकते, समाज के अन्दर भी लोगों में बेदारी लाने की ज़रूरत है। बुजुर्गों के मसले

उम्र के साथ-साथ बुजुर्ग लोग अलग-अलग क़िस्म की जिस्मानी बीमारियों का शिकार हो जाते हैं| उनका दिमाग़ सिकुड़ने लगता है जिसकी वजह से याददाश्त कमज़ोर हो जाती है। कुछ बुजुर्गों को बात सुनने और समझने में भी दुश्वारी पेश आने लगती है। इसकी इंतिहाई शक्ल अल-ज़ाइमर (5।27०77०) और डेमेनशिया (पागलपन) वगैरा की सूरत में ज़ाहिर होती है जो आदमी को एक तरह से अपाहिज करके रख देती है। बहुत-से बुज्ञुगों के सुनने और देखने में परेशानी होने लगती है। हाज़िमे का निज़ाम ()868॥7० $५४थग) कमज़ोर हो जाता है। शुगर (99००४) और ब्लड प्रेशर जैसी बीमारियों में तेज़ी आने लगती है। ताक़त कम हो जाती है| बहुत जल्द बदन थकने लगता है। तरह-तरह के दर्द शुरू हो जाते हैं। ये तमाम चीज़ें उनके आत्मविश्वास को कम करने की वजह बन सकती हैं।

इनसान एक समाजी वुजूद है। उसे हर उम्र में समाजी ज़िन्दगी और

ख़ानदानी खुशियों कैसे हासिल की जाएं?

समाजी रोल की ज़रूरत पेश आती है। बहुत-से लोग सारी ज़िन्दगी एक लगे-बंधे काम में गुज़ार देते हैं। उम्र के एक मरहले में वे अपने ख़ास किए हुए काम को पूरा करने के लायक़ नहीं रहते और रिटायर हो जाते हैं दूसरी समाजी दिलचस्पियाँ हों तो रिटार्यमेंट के बाद आदमी अपनी उम्र के लोगों और समाज से कट जाता है और उसके वक्त का बड़ा हिस्सा अकेले में या घर के लोगों के महदूद हल्के में गुज़रने लगता है। यह सूरतेहाल बहुत-से बुजुर्गों के अन्दर बेकारी का एहसास पैदा करती है वे ख़ुद को बेकार और बेज़रूरत समझने लगते हैं। उनका आत्मविश्वास डगमगाने लगता है। ज़िन्दगी-भर काम करनेवाला आदमी अगर पूरी तरह से फ़ी होता है तो बहुत- सारे ग़लत ख़यालात उसके ज़ेहन में आना शुरू हो जाते हैं। इस मोड़ पर आदमी के अन्दर एहसासे-कमतरी. (डिप्रेशन) पैदा हो जाती है। वह यह समझने लगता है कि अब घर और समाज में उसकी अहमियत कम होने लगी है। इन हालात में कोई कुछ कह दे या कोई बात हो जाए तो वह पूरी तरह से टूट और बिखर जाता है। कुछ लोग ग़म, तंहाई और ख़ौफ़ के शिकार हो जाते हैं।

चूँकि वक्त का बड़ा हिस्सा घर में गुज़र रहा होता है इसलिए वे घर के गैर-ज़रूरी कामों में दिलचस्पी लेना शुरू कर देते हैं या अपने बच्चों की ज़िन्दगी में दख़लन्दाज़ी करने लगते हैं। बीवी-बच्चे इसके आदी नहीं होते। नतीजे में तरह-तरह के झगड़े पैदा होने लगते हैं। सरगर्म अमली ज़िन्दगी के दौरान आदमी कामयाबियाँ (५०४०५७॥०॥७) हासिल करता रहता है, नतीजे में उसकी बड़ाई और तारीफ़ होती है, जो उसके एतिमाद, इज़्ज़ते-नफ्स और हौसले को बढ़ाती हैं। इसी तरह नाकामियों और चैलेंजों से भी उसे गुज़रना पड़ता है, जिससे उसके मुक़ाबला करने का जज़बा (878 89) जवान रहता है। सरगर्म ज़िन्दगी से अलग होने के बाद इन सब मौक़ों से वह महरूम हो जाता है।

उम्र के इस हिस्से में मौत का ख़ौफ़ भी सताता है। बहुत-से साथी, हम- उम्र और रिश्तेदार एक के बाद एक करके अल्लाह को प्यारे होने लगते हैं। उनसे महरूमी भी ग़म और मायूसी को बढ़ाती है। ख़ास तौर पर अगर

किक आनाओाद ख़ानदानी ब्नानदानी खुशियों कैसे हासिल की जाएँ?

शौहर-बीवी में से किसी की मौत हो जाए तो बुजुर्ग मर्द या औरत के लिए यह बहुत आज़माइशी मंरहला होता है। कुछ बुजुर्ग इन सब मसलों की वजह से तनाव और डिप्रेशन वगैरा के शिकार हो जाते हैं। नींद वैसे ही कम हो जाती है। ज़ेहनी दबाव नींद की कमी को और बढ़ाता है जिसके नतीजे में तबीअत ज़्यादा हस्सास हो जाती है। मिज़ाज में चिड़चिड़ापन, गुस्सा और झुँझलाहट बढ़ जाती है।

जिस्मानी सेहत और नफ़सियाती सेहत एक-दूसरे पर निर्भर हैं। एक की ख़राबी दूसरी तरफ़ भी ख़राबी पैदा करती है। इस तरह नफ़सियाती चैलेंज जिस्मानी कमज़ोरी की रफ़्तार तेज़ कर देते हैं। आदमी तेज़ी से बूढ़ा होने लगता है और उससे नफ़सियाती उलझनें और बढ़ने लगती हैं।

इस मरहले में अगर बुज़ुर्ग इनसान खुद और उसके क़रीबी जवान रिश्तेदार समझदारी से काम लें तो ज़िन्दगी का यह आख़िरी पड़ाव तकलीफ़ देनेवाला हो जाता है। थोड़ी-सी समझदारी और छोटी-छोटी क्रुरबानियाँ बुज़ुर्गों के बुढ़ापे को पुरसुकून बना देती हैं और वे ज़िन्दगी की आख़िरी साँस तक सरगर्म और ख़ुश ख़ुर्रम ज़िन्दगी गुज़ार सकते हैं।

नौजवानों का रोल

इस्लाम ने बुजुर्गों की इज़ज़त एहतिराम को इतनी अहमियत दी है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल.) ने फ़रमाया, “बुजुर्ग मुसलमान की ताज़ीम (इज़्नत और एहतिराम) करना अल्लाह की ताज़ीम का हिस्सा है”, (हदीस : अबू-दाऊद) | नबी (सल्लः) ने बुजुर्गों के वुजूद को ख़ैर बरकत का ज़रिआ बताया है। फ़रमाया, “हमारे बुजुर्गों की वजह से ही.हममें खैर बरकत है। इसलिए वह हममें से नहीं जो हमारे छोटों पर रहम नहीं करता और हमारे बड़ों की शान में गुस्ताख़ी करता है,” (हदीस : तबरानी)। नबी (सल्ल.) ने यह भी फ़रमाया कि “तुम्हें बूढ़ों की वजह से ही रोज़ी मिलती है और तुम्हारी मदद की जाती है।” (हदीस : बुख़ारी)

माँ-बाप और ख़ास तौर से बूढ़े माँ-बाप के साथ अच्छे सुलूक की ताकीदें तो कुरआन हदीस में बहुत ज़्यादा आई हैं। अल्लाह फ़रमाता है-

773 70%०१ 0५०० २०० पर अं अकाल

“तेरे रब ने फ़ैसला कर दिया है कि तुम लोग किसी की इबादत

करो, मगर सिर्फ़ उसकी माँ-बाप के साथ अच्छा सुलूक करो।

अगर तुम्हारे पास इनमें से कोई एक या दोनों, बूढ़े होकर रहें तो

उन्हें 'उफ़'” तक कहों, उन्हें झिड़ककर जवाब दो, बल्कि

उनसे एहतिराम के साथ बात करो। और नरमी रहम के साथ

उनके सामने झुककर रहो, और दुआ किया करो कि पालनहार!

इनपर रहम कर जिस तरह इन्होंने रहमत और मुहब्बत के साथ

मुझे बचपन में पाला था।”

(कुरआन, सूरा-7 बनी-इसराईल, आयत : 23-24)

इस आयत में अच्छे सुलूक के साथ ख़ास तौर पर बातचीत में नरमी, एहतिराम और मुहब्बत और बेज़ारी के इज़हार से बचने (उफ़ भी कहने) का हुक्म दिया है। बूढ़े माँ-चाप को इस लब लहजे की सबसे ज़रूरत होती है। इस उम्र के नफ़सियाती तक़ाज़े माँ-बाप से कोई ज़्यादती करवाए, या वे बिना वजह की दख़लन्दाज़ी करें, या चिड़चिड़ेपन का मुज़ाहरा करें, या गैर-ज़रूरी सवाल करें, या बच्चों की बात समझ पाएँ और उसके जवाब में बच्चे भी गुस्से बेज़ारी का इज़हार करें तो बूढ़े इनसान पर इसका बहुत ग़लत असर पड़ता है| क्रुरआन के हुक्म को पूरा करने में बच्चे बरदाश्त करें और नरमी का मुज़ाहरा करें और एहतिराम मुहब्बत के साथ उनसे बातचीत करें और उनके लिए दुआ करते रहें तो माँ-बाप को भरपूर दिली इत्मीनान मिलता है। यह इत्मीनान उनकी नफ़सियाती (ज़ेहनी) सेहत के लिए भी ज़रूरी है और जिस्मानी सेहत के लिए भी | दिली इत्मीनान के साथ बुढ़ापा पुंरसुकून हो जाता है और आदमी सिर्फ़ ज़िन्दगी का आखिरी हिस्सा हँसी-खुशी के साथ गुज़ारता है, बल्कि अपने ख़ानदान और समाज को बहुत कुछ आख़िरी उम्र तक देता रहता है। ऐसे पुरसुकून और फ़ायदा पहुँचानेवाले बुढ़ापे को यक्नीनी बनाना, माँ-बाप का बच्चों पर सबसे बड़ा हक़ है।

बच्चों को चाहिए कि कभी ख़यालों की दुनिया में कुछ साल पीछे जाएँ और उस वक्त का तसव्वुर करें जब उनके माँ-बाप जवान थे और तसब्बुर

डक पल ख़ानदानी ब्रानदानी खुशियों कैसे हासिल की जाएँ?

की आँख से अपने बचपन और माँ-बाप की कुरबानियाँ देखें, तो एक हस्सास ज़ेहन रखनेवाला बेटा. या बेटी ज़रूर माँ-बाप के साथ अच्छे सुलूक को अपना फ़र्ज़ (कर्तव्य) समझेगा। ढलती उम्र में इनसान को धन-दौलत की चाहत होती है, अच्छे पहनने-ओढ़ने की और ही उम्दा मज़ेदार खानों की | इस उम्र में इनसान को सिर्फ़ मुहब्बत-भरी बातचीत की ज़रूरत होती है। चूँकि अब उनके पास वक्त-ही-वक्त होता है और वे चाहते हैं कि कोई उनसे दो घड़ी मुहब्बत से बात करे, उनके पास कुछ देर बैठे, अपना वक्त दे और उनकी बातें सुने। बच्चों का यह सबसे पहला फ़र्ज़ है कि अपनी मसरूफ़ * ज़िन्दगी से कुछ वक्त निकालकर वे माँ-बाप के साथ गुज़ारें। उस वक्त को याद कीजिए जब आप तीन-चार साल की उम्र के बच्चे थे और दुनिया को पहली बार समझ रहे थे उन्होंने कभी आपको नज़रन्दाज़ नहीं किया था तो फिर क्‍यों आप उनकी ज़रूरत के वक्त उन्हें नज़रन्दाज़ कर दें।

घर के अहम फ़ैसलों में माँ-बाप से मश्वरा ज़रूर लें। उस खुशी का आप अन्दाज़ा नहीं लगा सकते जो उस वक्त उन्हें होती है उनको उस वक्त यह एहसास होने लगता है कि वे कितने अहम हैं। उस वक्त का तसव्वुर कीजिए जब माँ आपको यह यकीन दिलाती थी कि पकवान में आपने बहुत मदद की, जबकि आपने सिर्फ़ मूली या गाजर ही काटी थी। कोई वज़नी चीज़ जब बाप उठाते और आप दौड़कर उस काम में शरीक हो जाते थे, उस वक्त शफ़ीक़ बाप आपको यह एहसास दिलाना नहीं भूलते थे कि आपने उनकी कितनी मदद की है, हालाँकि उस वक्त आप एक या दो किलो वज़न उठाने के भी लायक़ नहीं होते थे। बुढ़ापे में माँ-बाप का हक़ यह है कि यही खुशियाँ उनको लौटाई जाएँ।

सैर-सपाटे के लिए बाहर जाएँ तो कभी अपने माँ-बाप को भी साथ ले जाएँ | उनकी छोटी-मोटी ज़रूरतों का ख़याल रखें। बूढ़े लोगों को छोटे बच्चों के साथ वक्त गुज़ारकर बहुत खुशी मिलती है। अपने छोटे बच्चों को यह शौक़ ज़रूर दिलाएँ कि वे दादा-दादी, नाना-नानी के साथ वक्त ज़रूर गुज़ारें। घर में आपके कोई दोस्त या मेहमान आएँ तो उन्हें अपने माँ-बाप से जान- पहचान ज़रूर करवाएँ। मुल्क के बाहर या माँ-बाप से दूर रहनेवाले बच्चे

ख़ानदानी खुशियों कैसे हातिल की जाए...

उनसे बात करते रहा करें।

एहतिराम और मुहब्बत के साथ उन्हें तामीरी (0०॥४॥ए०४४९) कामों में मसरूफ़ करें। अगर वे कुछ करना चाहें तो उनकी भरपूर मदद करें। भरपूर समाजी ज़िन्दगी गुज़ारने में उनकी मदद करें। उनके दोस्तों को कभी चाय पर बुलाएँ अल्लाह के रसूल (सल्ल-) ने फ़रमाया, “सबसे बड़ी नेकी यह है कि बेटा अपने बाप के दोस्तों से अच्छा सुलूक करे,” (हदीस : मुस्लिम)। अगर बच्चे माँ-बाप के मिलनेवालों और उनके दोस्तों से अच्छा सुलूक करें और घर पर उनका ख़ुशदिली से स्वागत करें, तो इससे बूढ़े माँ-बाप को दोस्तों और चाहनेवालों से ताल्लुक़ात रखने में मदद मिलती है और कोई झिझ्क नहीं रहती।

यह देखने में बहुत छोटी-छोटी बातें हैं लेकिन इन ही बातों से बूढ़े लोगों को अपनी अहमियत का एहसास होता है, तंहाई का दर्द दूर होता है, कुछ कर पाने और ख़ुद को बेकार समझने की तकलीफ़ से वे छूटकारा पाते हैं और ज़िन्दगी की उमंग और तवानाई (ऊर्जा) की हिफ़ाज़त होती है।

बुजुर्गों का अपना रोल

खुशगवार बुढ़ापे के लिए जहाँ यह ज़रूरी है कि नौजवान लोग ख़ानदान के बुजुर्गों के सिलसिले में अपनी ज़िम्मेदारियाँ अदा करें वहीं बूढ़े लोगों के लिए भी ज़रूरी है कि वे मुनासिब रवैया अपनाएँ, और इस बात की भरपूर कोशिश करें कि उनका बुढ़ापा ख़ुद उनके लिए बोझ और तकलीफ़ की वजह बने और ख़ानदान के दूसरे लोगों के लिए। अल्लाह के रसूल (सल्ल.) ने बहुत ज़्यादा बुढ़ापे से पनाह माँगी है, यानी ऐसा बुढ़ापा जो आदमी को मुहताज बना दे, उसकी ज़ेहनी ताक़तें बेकार हो जाएँ, अपने आपपर उसे कंट्रोल रहे और उसका वुजूद लोगों के लिए परेशानियों की वजह बन जाए। हमें हर मुमकिन कोशिश करनी चाहिए कि ऐसी कैफ़ियत से खुद को बचाएँ और अगर अल्लाह इस आज़माइश में हमको डाल दे तो फिर साबित-क़दमी के साथ उसका मुक़ाबला करना चाहिए।

बुढ़ापे के अकसर नफ़सियाती मसलों पर थोड़ी-सी कोशिश के ज़रिए

2४४5: ख़ानदानी खुशियों केसे हासिल की जाएँ?

क़ाबू पाया जा सकता है।

सबसे पहली ज़रूरत यह है कि हम अपने लाशुऊर में बुढ़ापे की नेक सोच और मक़सदवाली छवि बनाएँ। इस उम्र के साथ कमज़ोरी, लाचारी, दूसरों पर निर्भरता और बेकारी वगैरा की जो तस्वीर (छवि) हमारा समाज जोड़ देता है, उससे अपने लाशुऊर को छुटकारा दिलाएँ। ढलती उम्र एक सच्चाई है जिसका हर उस इनसान को सामना करना है जो उससे पहले मौत का शिकार हो जाए। अपनी ढलती उम्र से ख़ुशगवार समझौता करना और बुढ़ापे को अपने ऊपर हावी करने के बजाए इस उम्र से भी मज़ा लेने की राहें निकालना ही ख़ुशगवार बुढ़ापे का राज़ है।

बुढ़ापे में बदन के हिस्सों का बूढ़ा हो जाना ज़्यादा बंड़ा मसला नहीं होता। ऐसी तकलीफ़ें और परेशानियाँ तो जवान लोगों को भी हो जाती हैं। असल मसला ज़ेहन का बूढ़ा होना है। इससे बचने की कोशिश करनी चाहिए। कोलेस्ट्रोल, चिकने खाने, सुस्ती, काहिली ऐशपसन्दी, भोंडी गैर-मुनज़्जम ज़िन्दगी, ज़ेहनी तनाव, सिगरेट और तम्बाकू पीना कैरा ऐसे काम हैं जो ज़ेहन को बूढ़ा करते हैं। अगर हम सही खाना खाएँ, सोने-जागने के वक्त में डिसप्लिन पैदा करें, वक्त पर नमाज़ और इबादतों की सख्ती से पाबन्दी करें, सुबह-शाम हल्की-सी कसरत या चहलक़दमी करें तो इससे हमारी सेहत भी अच्छी रहेगी और ज़ेहन से बुढ़ापे का हमला टल जाएगा और उसकी तेज़ी भी कम होगी। इन शाअल्लाह!

दिमाग़ का इस्तेमाल कम हो जाए तो भी ज़ेहन तेज़ी से बूढ़ा होने लगता है। हमारे दिमाग़ में अल्लाह ने एक अजीब ग़रीब सलाहियत रखी है जिसे न्यूरोप्लास्टीसिटी (भ०प४्7ा००/४5४४०५) कहते हैं। आप नई चीज़ें सीखते रहें और दिमाग़ को मसरूफ़ रखें तो दिमाग की कोशिकाओं की लचक बाक़ी रहती है वरना वे सख्त और नाकारा होने लगते हैं। इसलिए यह ज़रूरी है कि हम कोई-न-कोई ,ख़ुशगवार मसरूफ़ियत अपनाएँ कोई हल्की-फुल्की मआशी सरगर्मी अपनाएँ | इसकी ज़रूरत हो तो किसी समाजी काम में ख़ुद को मसरूफ़ रखें। बच्चों या नौजवानों को पढ़ाएँ। दीनी सरगर्मियों में बहुत ज़्यादा हिस्सा लें। मुहल्ले, बिल्डिंग या सोसाइटी और मस्जिद के कामों

ख़ानदानी सुशियाँ कैसे हासिल की जाएं?

में दिलचस्पी लें। लोगों की मदद का कोई काम शुरू करें।

नई चीज़ों को सीखना भी हमारे दिमाग़ को बेदार (सक्रिय) रखता है। अपने बच्चों से कंप्यूटर सीखिए कोई नई ज़बान, कोई नया हुनर या कोई नया इल्म सीखिए। कुरआन हदीस का इल्म बाक़ायदा तौर पर हासिल करना शुरू कीजिए सीखने की कोई उम्र नहीं होती और नई चीज़ों से फ़ायदा हासिल करने और फ़ायदा पहुँचाने की कोई उम्र होती है।

आदमी मसरूफ़ (व्यस्त) हो जाए तो उसका दूसरा फ़ायदा यह होता है कि तंहाई और बेकारी के अज़ाब से छुटकारा पा लेता है। उससे तनाव कम होता है। अच्छी नींद आती है और इसकी भी ज़ेहन को तन्दुरुस्त रखने के लिए बड़ी ज़रूरत है।

अगर बाहर कोई सरगर्म मसरूफ़ियत हो तो वक्त का बड़ा हिस्सा घर में गुज़रने लगता है। इससे ऐसे काम जो आपसे ताल्लुक़ नहीं रखते हैं और बच्चों की ज़िन्दगियों में दख़लन्दाज़ी होती है और बात-बेबात पर नसीहत और दख़ल देकर उनके मामलों को अपने हाथ में लेने के रुझान पैदा होने लगते हैं। नतीजे के तौर पर कुछ घरों में झगड़े और कुछ घरों में खामोश खिंचाव की-सी कैफ़ियत पैदा होने लगती है। यह सूरतेहाल भी गैर-ज़रूरी तनाव और ज़ेहनी दबाव पैदा करती है। बूढ़े लोगों को यह बात समझनी चाहिए कि उनके बच्चों को आज़ादी के साथ ज़िन्दगी गुज़ारने और फ़ैसले लेने का हक़ हासिल है। उनकी रहनुमाई ज़रूर कीजिए | गलतियों पर तंबीह भी कीजिए, लेकिन हर छोटे-बड़े मसले में दख़लन्दाज़ी यक्रीनन उनकी हक़तलफ़ी है और ख़ाह-मख़ाह अपने ऊपर ऐसे बोझ लाद लेना है जिसके इस उम्र में हम पाबन्द नहीं हैं। बच्चों के मामले और मसलों को उनपर छोड़ दीजिए। उनको आज़ादी दीजिए। इससे उनके साथ आपके रिश्ते भी हमेशा ख़ुशगवार होंगे और आप भी तनाव और दबाव से महफूज़ रहेंगे।

अपने-आपको ज़िन्दादिल और ख़ुशमिज़ाज रखने की कोशिश कीजिए | चिड़चिड़ापन और बद॑मिज़ाज बनना कोई भी पसन्द नहीं करता, लेकिन अगर मिज़ाज में गलत रुझान और गलत सोच परवान चढ़े, शक, हसद और

कक 532 यु ख़ानदानी ब्ञानदानी खुशियों कैसे हासिल की जाएँ?

गुस्सा जैसे गलत रुझान से अपने-आपको पाक करने की हम फ़िक्र करें तो बुढ़ापे में ये चीज़ें हमारे साथ रहनेवालों के लिए और उनसे ज़्यादा ख़ुद हमारे लिए तकलीफ़ देनेवाली बन जाती हैं। नेक और तामीरी सोच पैदा कीजिए। बहुत-से लोगों को इस उम्र में अपनी नाकामियों का एहसास बहुत सताता है और पछतावे की आग उनके मिज़ाज को मनफ़ी (नकारात्मक) बना देती है। इस्लाम ने हमें हर हाल में अल्लाह का शुक्र अदा करने का हुक्म दिया है। दुनिया के मामलों में जो कुछ आपको हासिल है उसपर शुक्र के जज़बे से अपने दिल को भर लीजिए। गुनाहों और ग़लतियों के मामले में इस्लाम ने तौबा का रास्ता दिखाया है। सच्चे दिल से तौबा कीजिए और अपने दिल को ग़लत-ख़यालों से पाक कर दीजिए। जहाँ तक दूसरों की ज़्यादतियों का ताल्लुक़ है, उनको माफ़ करना और दरगुज़र करना: ही ज़िन्दगी को बेहतर तरीक़े से गुज़ारने का राज़ है।

अच्छी किताबों और अच्छे साहित्य (लिट्रेचर) का मुताला (अध्ययन) कीजिए। अल्लाह के चुनिन्‍्दा पैग़म्बरों और नेक बन्दों के बुढ़ापे की तस्वीरों को अपने लाशुऊर में बैठ लीजिए। ख़ुद अपने इर्द-गिर्द में मौजूद उन बूढ़े और बुज़ुर्ग लोगों की ज़िन्दगियों को देखिए जो इस उम्र में भी हँसते-मुस्कुराते ख़ुशी-खुशी ज़िन्दगी गुज़ार रहे हैं। - |

बुढ़ापे में खुशियों का बहुत बड़ा स्नोत बच्चे होते हैं। अपने मासूम पोते-पोतियों, नवासे-नवासियों और दूसरे बच्चों पर भरपूर मुहब्बत लुटाइए उनके साथ वक्त गुज़ारिए। उन्हें कहानियाँ सुनाइए। होमवर्क कराइए। मुमकिन हो तो उनके साथ खेलिए। पार्क में ले जाइए। उनसे ख़ूब बातें कीजिए। अपने ज़ेहन को जवान रखने का इससे बेहतर फ़ॉर्मूला कोई और नहीं है। *

खानदानी खुशियाँ केसे हासिल की जाएं?.............._

मनफ़ी (नकारात्मक) किरदार से ख़ुद को बचाएँ

कहते हैं कि समाज की खुशहाली में औरत का रोल बहुत अहम होता है। चूँकि जज़बात और नाजुक एहसासों की नुमाइन्दगी औरत करती है इसलिए वे ख़ानदान और समाज खुश रहते हैं जहाँ औरत ख़ुश खुर्रम और बाएतिमाद होती है। अल्लाह ने हमें बहुत सारे साधन दिए हैं जिनका इस्तेमाल करके औरतें अपनी सलाहियतों को निखार सकती हैं, खुद भी खुशी-खुशी ज़िन्दगी गुज़ार सकती हैं और दूसरों को भी खुशी दे सकती हैं। औरतों का हुस्न सिर्फ़ उनके चेहरे का हुस्न नहीं होता, बल्कि उनकी अपनी शख्सियत पूरे तौर पर फ़ितरत के खूबसूरत पहलू की मज़हर होती है। उनकी मुहब्बत, क्ुरबानी और उनके नाज़ुक जज़बात सारे समाज को पुरसुकून और खुशियों से भरा बनाने की वजह बनते हैं। इसके बरख़िलाफ़ अगर औरतें तनाव की शिकार हो जाएँ, मिज़ाज में चिड़चिड़ापन हो, गुस्सा, हसद और एहसासे-कमतरी जैसी आदतों में वे पड़ जाएँ तो ख़ानदान और समाज का सुकून दरहम-बरहम हो जाता है। औरत की अपनी बेहतरीन आदतों, तौर- तरीक़ों और अख़लाक़ की वजह से उसका घर जन्नत की तरह भी बन सकता है और उसकी ग़लत और मुख़ालिफ़ सोच की वजह से उसका घर जहन्नम का नक़शा भी पेश कर सकता है।

इस्लाम इस बात को सझ्त नापसन्द करता है कि मर्द औरत एक-दूसरे के ख़िलाफ़ और एक-दूसरे के दुश्मन बनकर रहें और फ़ेमिनिज़्म और औरतों की तहरीकों के नाम पर दोनों जिंसों के बीच अधिकारों की कश्मकश का माहौल बना रहे | इस्लाम मर्दों और औरतों को एक-दूसरे का

3 एकिलः ख़ानदानी खुशियों कैसे हासिल को जाएँ?

साथी क़रार देता है जो नेकी और भलाई के कामों में एक-दूसरे की मदद

करते हैं, (कुरआन, सूरा-9 तौबा, आयत-7)। इस्लाम ने मर्दों और औरतों

के अधिकारों और ज़िम्मेदारियाँ पर तफ़सील से रौशनी डाली है। इस्लाम

चाहता है कि दोनों अपने-अपने दायरों में काम करते हुए एक नेक और _ पाकीज़ा समाज की तामीर में अपना रोल अदा करें।

दूसरी तरफ़ इस हक़ीक़त से भी इनकार मुमकिन नहीं कि जो हुकूक़ (अधिकार) इस्लाम ने औरतों को दिए हैं, हमारा रिवायती समाज अमली तौर पर वे हुक़ूक़ उन्हें नहीं देता इस्लाम ने औरत को इतना ऊँचा मक़ाम और इज़्ज़त हिफ़ाज़त दी है कि जिसका मुक़ाबला कोई दूसरा समाज नहीं कर सकता। अगर हमारा समाज औरत के बारे में इस्लाम की तालीमात पर अमल करने लगे तो उसकी बरकतें सारी दुनिया को इस्लाम की तरफ़ मुतवज्जह करने के लिए काफ़ी होंगी। हमारे समाज में औरत के मक़ाम को इस्लाम की तालीमात के मुताबिक़ बुलन्द करने का यह काम मर्दों और औरतों, सबको मिल-जुलकर करना है आमतौर पर देखा यह गया है कि इस मामले में बड़ी रुकावटें ख़ुद औरतों ही की तरफ़ से खड़ी की जाती हैं।

बेशक औरत के साथ जब भी नाइनसाफ़ी होती है तो उसमें मर्द का भी अहम रोल होता है, लेकिन मालूमात तजरिबात से यह बात भी सामने आती है कि घरेलू ज़िन्दगी से लेकर प्रोफ़ेश्नल जगहों तक, जब भी औरत ज़ुल्म का शिकार होती है तो उसमें कहीं-न-कहीं एक और औरत का हाथ भी होता है। इस लेख में औरतों के इसी मुख़ालिफ़ रोल पर बात की गई है कि किस तरह ख़ुद औरतें समाज में औरतों के रोल को ऊँचा उठाने की राह में रुकावट बनती हैं।

कुछ साल पहले अमेरिकी लेखिका केली वेलन ((०॥४ ५७) की एक किताब बहुत मशहूर हुई थी "७ परजंड॥०6 8867004 : एग्रावए०पड़ [० [97९,68809 एशा॥।6 ंथ68॥5' इसमें लेखिका ने सर्वे के नत्तीजों और बहुत-सी घटनाओं और तादाद के ज़रिए यह साबित करने की कोशिश की है कि औरतों की तरक्क़ी के रास्ते में अकसर औरतें ही रुकावट बनती हैं। केली के सर्वे के मुताबिक़ 85 प्रतिशत औरतें दूसरी औरतों से परेशान

'ख्रानदानी खुशियों केसे हासिल की जाएँ बा 8 5

होने की वजह से तनाव की शिकार रहती हैं। 88 प्रतिशत औरतों ने दूसरी औरतों की तरफ़ से कमीनगी (४६४०४८७७) और दूसरे मुख़ालिफ़ और ग़लत रवैयों की तकलीफ़ बरदाश्त की है।.इन औरतों में खानदान की दूसरी औरतें, ससुराली रिश्तेदार औरतें और साथ में काम करनेवाली औरतें कगैरा सब शामिल हैं। केली की इस किताब ने एक नई बहस छेड़ दी है। आमतौर पर औरतों की तहरीकें औरतों पर ज़ुल्म के लिए मर्दों को ज़िम्मेदार समझती रही हैं, लेकिन इस किताब ने यह साबित किया कि ऐसा नहीं है। औरतों की -कमज़ोरी और मज़लूमियत अकसर ख़ुद औरतों ही की वजह से होती है।

नफ़सियात के माहिरों (मनोवैज्ञानिकों) के मुताबिक़ औरतों के अन्दर दूसरी औरतों से तुलना करने (एएएथव 85002] (07एयं5णा) और उनसे ख़ुद को बेहतर साबित करने का ज़ोर पाया जाता है। यह ज़ोर उनके अन्दर मुख़ालिफ़ जज़बात यानी गुस्सा, नफ़रत, हसद वगैरा को भी परवान चढ़ा सकता है। मिसाल के तौर पर यूनिवर्सिटी ऑफ़ टेक्सेस के नफ़सियाती साइंटिस्ट जेम कनफ़र (भंग० 0०7) की रिसर्च में 7 प्रतिशत मर्द दूसरे मर्दों से हसद करने में पाए गए, जबकि दूसरी औरतों के लिए ऐसे जज़बात रखनेवाली औरतों का अनुपात तक़रीबन 58 प्रतिशत था। मर्द किसी औरत को यानी दूसरी जिंस को अपने से आगे बढ़ते हुए नहीं देख सकते, लेकिन औरतें दूसरी औरतों यानी अपनी ही जिंस को अपने से आगे बढ़ने नहीं देना चाहतीं। इस तरह मर्द दूसरे मर्दों के हसद (जलन) से भी महफ़ूज़ रहते हैं और औरतों के भी, जबकि औरतें मर्दों के हसद का भी शिकार रहती हैं और औरतों के भी। आगे बढ़ने देने का यह ज़ोर अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग रूप में सामने आता है। काम की जगहों पर दूसरी औरतों की तरकुक़ी और उनकी कामयाबी से जलन और हसद के जज़बात पैदा होते हैं। सास और बहू के बीच बेटे या शौहर से क़रीब होने की लड़ाई शुरू हो जाती है। देवरानियों-जेठानियों में घर के मामलों पर कंट्रोल की कश्मकश होने लगती है वगैरा। लेकिन इसका नतीजा आमतौर से यही निकलता है कि औरतें दूसरी औरतों की समाजी तरक्क़ी के रास्ते में रुकावट बन जाती हैं।

लक ख़ानदानी ब्ानदानी खुशियों कैसे हासिल की जाएँ?

औरतें और समाजी रिवायतें

औरतों को इस्लाम के दिए गए हुक़ूक़ के अदा करने में अकसर हमारे समाज की रिवायतें रुकावट बनती हैं। ये रिवायतें मुसलमान समाज पर दूसरे समाजों, मज़हबों और मक़ामी रिवाजों के असर से बनी हैं और समाज में उनकी जड़ें गहरी हैं। मुसलमान होने की हैसियत से यह हमारी ज़िम्मेदारी है कि हम ऐसी रिवायत की तरफ़ ध्यान दें जो इस्लाम की तालीमात से टकरा रही हो। अब इसका शुऊर आम हुआ है और बहुत-से घरों में ऐसी गलत रिवायतों को ख़त्म करने की कोशिश भी होती है, लेकिन आमतौर से औरतें इन रिवायतों की बहुत बड़ी हिफ़ाज़त करनेवाली बनकर सामने जाती हैं। ये रिवायतें औरत को पिछड़ी हुई और मज़लूम बनाए रखने में अहम रोल अदा करती हैं।

इन रिवायतों में इस वक्त सबसे अहम और तबाह करनेवाली रिवायत शादी-ब्याह की रस्म और रिवाज हैं। इस्लाम ने निकाह को बहुत आसान बनाया है। मर्द और औरत का शादी के रिश्ते में रहने के लिए एक-दूसरे को क़बूल करना, महूर का अदा करना और दो गवाहों की गवाही निकाह के लिए काफ़ी है। निकाह में औरत या उसके ख़ानदान की तरफ़ से एक पैसे के खर्च की भी ज़रूरत नहीं है। निकाह की यह आसानी औरत की ताक़त बढ़ाती है। इसकी वजह से माँ-बाप पर लड़की बोझ नहीं बन पाती। हमेशा लड़कों की नहीं, बल्कि लड़कियों की डिमांड ज़्यादा रहती है तलाक़ औरत के लिए नहीं, बल्कि मर्द के लिए नुक़सानदेह होती है और वह तलाक़ देने से पहले दस बार सोचने पर मजबूर होता है। तलाक़शुदा और बेवा औरतों की शादियाँ निहायत आसान हो जाती हैं। अल्लाह के रसूल (सल्ल.) और सहाबा के ज़माने में ऐसी ही सूरतेहाल थी। आज जो लड़कियों की शादी मुश्किल हो गई है, लड़कियों के माँ-बाप को दबकर रहना पड़ता है और खुद लड़कियाँ ससुराल में हर तरह के ज़ुल्म ज़्यादती को बरदाश्त करते रहने पर ख़ुद को मजबूर पाती हैं, यह एक गैर-फ़ितरी सूरतेहाल है और इसकी बड़ी वजह शादियों का मुश्किल होना है।

'ख्रानदानी खुशियाँ कैसे हासिल की जाएं?...............ः

आसान निकाह की तहरीकें सालों से चल रही हैं लेकिन इस रास्ते में अकसर रुकावट औरतों की तरफ़ से ही होती है। शादी की रस्मों को वे बहुत अज़ीज़ रखती हैं | जहेज़ दिए बगैर बेटी को रुख्तत करना बुरा समझती हैं | बेटे के ससुराल से मुनासिब जहेज़ मिले तो उसे अपने बेटे की और अपने खानदान की तौहीन समझती हैं। ये ज़रूरी समझती हैं कि उनकी बेटी की शादी की दावत, दूसरे रिश्तेदारों की दावतों से ज़्यादा शानदार और भारी- भरकम हो आलीशान दावतों और शानदार तक़रीबों से अपने जज़बात और अरमान जोड़ लेती हैं। बेमानी और गैर-माकूल रस्मों को जान से भी ज़्यादा अज़ीज़ रखती हैं। इन बातों को ऐसा जज़बाती मसला बना लेती हैं कि सुधार की कोशिश करनेवाले मर्दों के लिए सुधार के काम करने बहुत ज़्यादा मुश्किल हो जाते हैं। ये औरतें यह नहीं समझ पातीं कि दो-चार दिन के इन गैर-माकूल जज़बात और अरमानों की वजह से वे अगली नस्ल की लड़कियों की ज़िन्दगियाँ मुश्किल-से-मुश्किल बनाती जा रही हैं और इस्लामी निकाह की रूह ख़त्म करने की वजह बन रही हैं।

बेवाएँ और तलाक़शुदा औरतें दूसरी औरतों के तानों के डर से ही दूसरे निकाह से रुकी रहती हैं। ताना देनेवाली औरतें अच्छी तरह जानती हैं कि ऊँचे मरतबे की सहाबियात ने अपने जलीलुल-कद्र शौहरों के इन्तिक़ाल के बाद भी निकाह किए हैं। लेकिन इसके बावजूद, गैर-इस्लामी असरात की वजह से वे ऐसी शादियों को ख़ुद भी बुरा समझती हैं और समाज में ऐसे रुझान को परवान चढ़ाती हैं जिसकी वजह से दूसरी बेवाएँ और तलाक़शुदा औरतें भी इसकी हिम्मत नहीं कर पातीं | बेवाओं और तलाक़शुदा औरतों का निकाह हो पाना, यह भी आज हमारे समाज में औरतों की कमज़ोरी की एक बड़ी वजह है।

औरतों की कमज़ोरी की एक बड़ी वजह औरत को उसके माली हकूक़ से महरूम (वंचित) करना है। इस्लाम ने औरत को जो माली हुकूक़ दिए हैं उसका तसब्युर भी नए समाज के लिए मुश्किल है। इस्लाम ने औरत को पूरे हुक्ूक़ दिए हैं, लेकिन कोई माली ज़िम्मेदारी उनपर नहीं लागू की है। अल्लाह ने साफ़-साफ़ फ़रमा दिया है कि औरत का. माल उसका अपना माल है।

त्कन आय कक ख़ानदानी ब्रानदानी खुशियाँ कैसे हासिल की जाएँ?

उसके शौहर या ससुराली रिश्तेदार को कोई हक़ नहीं कि वे ज़बरदस्ती उस माल के मालिक बनने की कोशिश करें। अल्लाह कहता है-

“और जो कुछ अल्लाह ने तुममें से किसी को दूसरों के मुक़ाबले

में ज़्यादा दिया है उसकी तमन्ना करो। जो कुछ मर्दों ने कमाया

है उसके मुताबिक़ उनका हिस्सा है और जो कुछ औरतों ने

कमाया है उसके मुताबिक़ उनका हिस्सा है।”

(कुरआन, सूरा-4 निसा, आयत-82)

बीवी और शौहर का माल भी अलग-अलग होना और अपने-अपने मालिक के लिए होना ज़रूरी है कि बहुत-से शरई अहकाम का इसपर दारोमदार है। शौहर को अपने माल में से ज़कात का हिसाब करना है और बीवी को अपने माल में से। शौहर का माल उसके मरने के बाद उसके वारिसों में तक़सीम होगा और बीवी का माल उसके वारिसों में | इसलिए इस्लाम के मुताबिक़ यह सही नहीं है कि बीवी का माल शौहर के माल के साथ मिल्र जाए और उसके माल पर भी शौहर क़ब्ज़ा कर ले। महूर बीवी का माल है। उसके शौहर या माँ-बाप की तरफ़ से दिए गए तोहफ़े उसका माल हैं। उसको विरासत में मिलनेवाला माल उसका अपना है। फिर अगर औरत तिजारत या नौकरी करा के ज़रिए माल कमाती है तो यह भी उसका हक़ है। और बीवी का नफ़क़ा (गुज़ारा भत्ता) उसके शौहर पर वाजिब है। इस तरह इस इस्लामी स्कीम में औरत माली लिहाज़ से बहुत ताक़तवर (॥ए०४०४०0) है।

हमारे समाजी निज़ाम में औरतों के माल पर शौहर और उससे आगे बढ़कर उसके पूरे ससुराल का ज़बरदस्ती क़ब्ज़ा कर लेना बहुत आम बात है। जहेज़ के तौर पर औरत को जो कुछ मिलता है उसे ससुरालवाले अपना समझते हैं। एक बार एक गैर-मुस्लिम डॉक्टर की कहानी पढ़ी थी कि उसकी सारी कमाई रोज़ाना उसकी सास ले लेती है, और सिर्फ़ पचास रुपये रोज़ाना उसके जेब ख़र्च के लिए लौटाती है। यह सूरतेहाल बहुत-से मुस्लिम घरानों में भी पाई जाती है, जहाँ काम करनेवाली औरतों से “उनकी सासें” उनकी सारी कमाई पर क़ब्जा कर लेती हैं। इस रिवाज के ज़रिए सिर्फ़ वे अपनी

क़लबली कक के कत के जी »»»»»».]्])््पः

बहुओं पर ही ज़ुल्म नहीं करतीं, अपनी बेटियों पर भी इसी तरह के रिवाजी ज़ुल्म के रास्ते आसान करती हैं और नस्ल-दर-नस्ल इस ज़ुल्म के होने का ज़रिआ बनती हैं।

सबसे बड़ा मसला विरासत में औरत के हिस्से के बारे में है। इस्लामी क़ानून के मुताबिक़ माँ, बेटी और बीवी को हर सूरत में मरनेवाले के माल और जायदाद से हिस्सा मिलता है। इनके अलावा बहुत-सी सूरतों में दूसरी रिश्तेदार औरतें जैसे बहन और पोती वगैरा का भी हिस्सा मिलता है। शायद आज भी कुछ गिने-चुने घराने ही होंगे जहाँ औरतों को यह हिस्सा दिया जाता है। कुरआन ने विरासत के अहकाम को बहुत तफ़सील से बयान किया है और इन अहकाम की ख़िलाफ़वर्ज़ी-पर बड़ी ख़ौफ़नाक धमकी सुनाई है। लेकिन इसके बावजूद औरतों को विरासत के माल में हिस्सा देने का आम रिवाज दीनदार घरानों में भी नहीं हो पाया है। अकसर घरानों में इसकी अदाएगी में औरतें ही रुकावट बनती हैं। घर के बुजुर्ग के मरने के बाद बेवा माँ को इस बात से तकलीफ़ होती है कि उसके मरे हुए शौहर की जायदाद तक़सीम हो। हालाँकि यह शरीअत का हुक्म है। फिर जब तक़सीम का मरहला आता है तो बेटों की बीवियों को यह पसन्द नहीं आता कि उनकी नंदों को हिस्सा दिया जाए। वे हिसाब लगाना शुरू करती हैं कि किस नंद की शादी पर उनके शौहर ने कितना ख़र्च किया था। बहुत-सी बीवियों को चूँकि उनके अपने बापों से हिस्सा नहीं मिला होता है इसलिए वे इसका बदला अपनी नंदों का हिस्सा मारकर लेना चाहती हैं। हालाँकि उन्हें अपना हिस्सा, अपने भाइयों से वुसूल करना चाहिए कि नंदों का हिस्सा नाजाइज़ तौर पर मारकर। यह मसला उस वक्त और भी पेचीदा हो जाता है जब मरनेवाला खेती की ज़मीनें छोड़कर मरे, या ऐसा कारोबार छोड़कर मरे जिसकी कमाई ख़ानदान के लालन-पालन का ज़रिआ है।

विरासत के अहकाम शरीअत के अहकाम हैं। उनकी ख़िलाफ़वर्ज़ी खुदा के ग़ज़ब को भड़काने का ज़रिआ बन सकती है। वह दुनिया में बेबरकती की वजह भी बनती है और आख़िरत में अज़ाब की भी। जहाँ तक हमारे मौज़ू (विषय) का ताल्लुक़ है, विरासत के अहंकाम औरत को माली मज़बूती

किक ख़ानदानी ब्ानदानी खुशियों कैसे हासिल की जाएँ?

देते हैं। अगर औरत की अपनी कोई कमाई भी हो तब भी एक मध्यम वर्ग के घराने में औरत को उन साधनों से इतना माल मिल जाता है कि उसको ज़रूरी मआशी मज़बूती मिल जाती है। जो औरतें अपने छोटे से वक्ती फ़ायदे के लिए शरीअत के ख़िलाफ़ ग़लत रिवाज को आम करती हैं, वे करोड़ों मुसलमान औरतों को कमज़ोर करने का ज़रिआ बनती हैं। इनमें से बहुत-सी औरतें बेवा होने की वजह से, तलाक़ की वजह से, या शौहर के ज़ुल्म की वजह से बेसहारा हो जाती हैं और ऐसी सूरत में उनके जाइज़ हक़ उनको मिले तो निहायत बेबसी की ज़िन्दगी गुज़ारने पर मजबूर हो जाती हैं। इस सूरतेहाल के लिए हमारे गैर-शरई रिवाज ज़िम्मेदार हैं और यक्कीनन वे मर्द औरत भी ज़िम्मेदार हैं जो अल्लाह और उसके रसूल (सल्ल.) से बगावत-करके ऐसे रिवाजों को आगे बढ़ाने का ज़रिआ बनते हैं।

इसी तरह का मामला मिल-जुलकर रहने के बारे में उन बहुत सारे हुकूक़ का है जो इस्लाम ने औरत को दिए हैं।

इस्लाम औरत को यह हक़ देता है कि उसकी शादी उसकी मरज़ी के ख़िलाफ़ हो। बहुत-से घरानों में माँ-बाप इसे अपनी इज़्ज़त का मसला बना लेते हैं। लड़की के जज़बात का बिलकुल ख़याल नहीं रखते ज़ात-पात और ख़ानदानी मेयार वगैरा के पैमानों को गैर-ज़रूरी अहमियत देते हैं। आज भी ऐसे घराने मौजूद हैं जहाँ रिश्ता तय करते वक्त लड़की से उसकी राय तक नहीं ली जाती। घर में ज़ोर-शोर से शादी की तैयारी होती रहती है और लड़की को पता ही नहीं होता कि उसका होनेवाला शौहर कौन है शादी की रज़ामन्दी देना सिर्फ़ एक रस्म बन जाता है, इसलिए कि इस मौक़े पर इनकार करना या अपनी राय देना लड़की के लिए अमली तौर से मुमकिन नहीं रहता। यह माँ की ज़िम्मेदारी है कि वह रिश्ता तय करने से पहले लड़की से खुलकर बात करे और इस बात को यक्रीनी बनाए कि उसका दूल्हा उसकी मरज़ी से तय हो।

इस्लाम बीवी को नान-नफ़क्रे का हक़ देता है। यानी उसके अपने और शौहर की ज़िन्दगी के मेयार के मुताबिक़ मुनासिब सहूलतें उसको मिलें। यह नहीं कि बहू को नौकरानी समझा जाए और सारे घर और ससुराल की

ख्रानदानी खुशियां कैसे हासिल की जाए...

ख़िदमत का बोझ उसपर लाद दिया जाए। इस्लाम प्राइवेसी का हक़ देता है। हिजाब को ज़रूरी क़रार देता है। देवर, जेठ, नन्‍्दोइ वगैरा सब गैर-महरम रिश्तेदार हैं। इस्लामी रहन-सहन कां ये लाज़िमी तक़ाज़ा है कि इनके सिलसिले में मुनासिब फ़ासिले को यक़ीनी बनाया जाए। मुनासिब प्राइवेसी के बगैर, इन रिश्तेदारों के साथ रहने पर मजबूर करना या उनकी ख़िदमत पर मजबूर करना, उनसे खुलकर मिलने पर मजबूर करना या ऐसा रहन-सहन जिसमें उन रिश्तेदारों से मुनासिब फ़ासिला बनाए रखना मुमकिन हो, यक़ीनन इस्लामी तालीमात के ख़िलाफ़ है। इस्लाम की इन तालीमात पर अमल हो तो उन बहुत-से ख़ुराफ़ात और ज़ुल्म से बचा जा सकता है जो मक़ामी समाज के असर से अब मुसलमान घरों में भी घुस आए हैं। आमतौर पर घर के रहन-सहन पर घर की बूढ़ी औरत यानी सास का कंट्रोल होता है। ग़लत रिवायतों की हिफ़ाज़त करने के लिए भी वही ज़िम्मेदार होती हैं। बहुत-सी औरतें अपने लड़कों के दरमियान भाईचारा और मज़बूत रिश्ते के लिए यह ज़रूरी समझती हैं कि वे सब और उनकी बीवियाँ एक ही घर में बहुत ज़्यादा बेतकल्लुफ़ बनकर रहें। इस्लाम इसकी इजाज़त देता है और भाइयों के दरमियान भाईचारे के लिए ज़रूरी है। बुज़ुर्ग औरतें चाहें तो इन रिवायतों के सुधार और पाकीज़ा इस्लामी रहन-सहन की क़द्रों को बढ़ावा देना उनके लिए मुश्किल नहीं होगा। रिश्तों की बेहतरी और औरतें

यह तो हक़ (अधिकार) फ़राइज़ (ज़िम्मेदारियों) की बहस हुई। इनसानी रिश्ते सिर्फ़ हुक्ूक फ़राइज़ के क़ानूनी बैलेंस से मज़बूत नहीं हो सकते। ख़ास तौर पर मज़बूत ख़ानदानों की बुनियाद के लिए हुक़ूक़ फ़राइज़ का बैलेंस भी ज़रूरी है और उसके अलावा, एक-दूसरे के लिए मुहब्बत, एहतिराम, भरोसा और क़ुरबानी जैसे जज़बात भी ज़रूरी हैं। ख़ानदानी ज़िन्दगी में बदअम्नी की असल वजह ग़लत और मुख़ालिफ़ जज़बात होते हैं। ऐसी बदअम्नी यक्नीनन औरत ही को नुक़सान पहुँचाती है और उसको कमज़ोर कर देती है। तहक़ीक़ से यह बात मालूम होती है कि अकसर इन मुख़ालिफ़ जज़बात को बढ़ावा देने में भी औरतों का रोल होता

का ख़ानदानी ब्रानदानी खुशियाँ कैसे हासिल की जाएँ?

है। हमारे समाज में तलाक़ के अकसर क्षिस्से के पीछे किसी औरत का ही हाथ होता है। सास और बहू के रिश्ते तो हमारे मुल्क में नाविलों से लेकर फ़िल्मों और सीरियलों तक का पसन्‍्दीदा विषय है। अकसर सास और बहू के रिश्ते, माँ-बेटे और शौहर-बीवी के रिश्ते में भी असर डालने लगते हैं। अगर सास समझदारी से काम ले तो वह अपने बेटे की शादीशुदा ज़िन्दगी को मुश्किल बना देती है। कभी वह ख़ुद बेटे को तलाक़ के लिए मजबूर करती है और कभी ऐसे हालात पैदा कर देती है, जिनका लाज़िमी नतीजा शौहर और बीवी की जुदाई ही की सूरत में निकलता है। कई सूरतों में शौहर की बहनें और दूसरी रिश्तेदार औरतें भी तलाक़ की वजह बनती हैं। ख़ानदानी निज़ाम की बदअम्नी के ज़रिए औरत को कमज़ोर करने में सिर्फ़ सास और ससुराली रिश्तेदारों का ही हाथ नहीं होता, ख़ुद लड़की और उसकी माँ का भी बहुत-सी सूरतों में बहुत ख़राब रोल होता है। हमारे समाज में सास, नन्‍्द, देवरानी, जिठानी और दूसरे ससुराली रिश्तेदारों के बारे में ऐसे ग़लत तसब्वुरात आम हैं कि एक लड़की अपने लाशुऊर में इन ही तसब्बुरात को लेकर ससुराल में क़दम रखती है। अगर लाशुऊर में इन रिश्तों की कोई ख़ास छवि बैठ जाए तो रवैयों पर उसका असर लाज़िमी तौर पर पड़ता है। वह हर ससुराली रिश्तेदार को शक की निगाह से देखती है। उसकी मामूली नाराज़गी में भी जुल्म और ज़्यादती का एहसास होने लगता है। हर मामले से वह ससुराल और मैके के दरमियान फ़र्कर करने की आदी हो जाती है। ऐसे रवैयों से तल्ख़ियों का पैदा होना फ़ितरी बात है। अकसर लाशुऊर की ये तस्वीरें माएँ उस रोज़ाना की बातचीत के ज़रिए बनाती हैं जो वे अपने घरों में करती रहती हैं। माँ ख़ुद अपने ससुराल और ससुराली रिश्तेदारों के बारे में हमेशा मुख़ालिफ़ बातों का इज़हार करती रहे या चुन-चुनकर ऐसे घरानों का ज़िक्र करती रहे जहाँ ससुरालवाले ज़ालिम हैं तो कम उम्र लड़की का नया ज़ेहन, ससुराल के बारे में कुछ ख़ास तसब्बुरात पैदा कर लेगा। ये तसव्बुरात उस भासूम लड़की को नई ज़िन्दगी के चैलेंजों के लिए नाकारा बना देंगे। उसकी जज़बाती ज़िहानत कम हो जाएगी। फिर वह ससुराल में जाएगी तो उसकी ग़लत सोच पूरे माहौल को कड़वा बना देगी जज़बाती ज़िहानत कीं

'ख्रानदानी खुशियाँ केसे हासित की जाएं!

कमी आदमी को कमज़ोर (५४॥॥7४४७७) बना देती है। ससुरालवाले भी समझदार हों तो फिर कड़वाहट बढ़ती है और नतीजा या तो अलग होने की सूरत में निकलता है या ज़ुल्म की सूरत में। *

अगर औरतें इस्लाम की तालीमात को अपने घरों में लागू करने के लिए कमर कस लें और यह तय कर लें कि वे अल्लाह और उसके रसूल के हुक्मों के मुक़ाबले में रिवाजों की परवा करेंगी, अपने तंगनज़र वक्ती फ़ायदों की, तो खुद-ब-खुद सूरतेहाल बदलेगी, और यही औरतों की ज़िम्मेदारी है। अल्लाह के पैग़म्बर (सल्ल.) ने एक मशहूर हदीस में कहा है, “तुममें से हर एक निगराँ है और अपने ज़ेरे-निगरानी के सिलसिले में जवाबदेह है,” (बुख़ारी)। पैगम्बर (सल्ल.) ने इस हदीस में दूसरे लोगों के तज़किरे के साथ- साथ यह भी कहा है कि औरत अपने शौहर के घर और उसके बच्चों की निगराँ है और उसके सिलसिले में जवाबदेह है। इसलिए अगर कोई औरत घर की ज़िम्मेदार है तो उस घर में सही रिवायतों और पाकीज़ा इस्लामी रहन- सहन को आगे बढ़ाने की वह ज़िम्मेदार है और इस ज़िम्मेदारी के सिलसिले में वह अल्लाह के सामने जवाबदेह है।

आज अल्लाह का शुक्र है ऐसी औरतों की कमी नहीं है जो इस सूरतेहाल को बदलने में अहम रोल अदा कर रही हैं। माओं जैसी प्यार-मुहब्बत लुटानेवाली सासें भी मौजूद हैं। मैं ऐसी कई बुजुर्ग औरतों को जानती हूँ जिन्होंने अकेले दम पर पूरे ख़ानदान को इस बात पर तैयार किया कि वे बेटियों का विरासत में हिस्सा अदा करें। उन्होंने अपने ख़ानदानों से गलत रस्म रिवाज को ख़त्म किया। शादियों को आसान बनाया। अपने घर के रहन- सहन और तौर-तरीक़ों को शरीअत की तालीमात के मुताबिक़ बदला ! ये मिसालें आम हों और औरतें शरीअत पर अमल करने का बीड़ा उठाकर आगे बढ़ें तो हमारे घर और ख़ानदान 'इन शाअल्लाह' दुनिया में जन्नत के नमूने बनेंगे और औरत को उसका वह हक़ीक़ी मक़ाम मिलेगा जो इस्लाम ने उसे दिया है।

| 80 | जज यह वा तन् उप ख़ानदानी प्रानदानी खुशियों केसे हासिल की जाएँ?

बच्चे ओर उनकी तरबियत

हम्ल के मरहले और उसके नफ़सियाती तक़ाओ़े

अल्लाह ने इनसान को बेशुमार नेमतें दी हैं, उनमें बच्चे सबसे बड़ी नेमत हैं। बच्चे पूरी इनसानियत का सरमाया होते हैं। इसी लिए अल्लाह ने उनकी बेहतरीन तरबियत की ज़िम्मेदारी माँ-बाप के ज़िम्मे की है। ऐसे माँ-बाप जो ख़ुद दीन की समझ-बूझ रखते हों वे अपने बच्चों के ज़रिए एक बेहतरीन क़ौम को और इनसानियत के शानदार भविष्य को भी बना सकते हैं।

अल्लाह ने माँ के पैरों के नीचे जन्नत रखी है। क्रुरआन में अल्लाह ने माँ के एहसान का ख़ास तौर से ज़िक्र किया है और उसका हवाला देकर माँ-बाप के साथ अच्छे सुलूक की ताकीद की है।

“हमने इनसान को हिदायत की कि वह अपने माँ-बाप के साथ

अच्छा सुलूक करे | उसकी माँ ने तकलीफ़ उठाकर उसे पेट में रखा

और तकलीफ़ उठाकर ही उसको जन्म दिया और उसके हम्ल

(गर्भ) और दूध छुड़ाने में तीस महीने लग गए।”

(कुरआन, सूरा-46 अहक़ाफ़, आयत-5)

हम्ल और माँ के पेट का मरहला एक बच्चे की ज़िन्दगी का बड़ा अहम मरहला होता है। इस मरहले में उसकी शख्सियत की बुनियाद पड़ जाती है। उसकी जिस्मानी शख्सियत की भी और रूहानी, अख़लाक़ी और ज़ेहनी शस्सियत की भी। बच्चे की ज़िन्दगी-भर सेहत कैसी रहेगी? उसकी सलाहियतें क्या होंगी? उसकी शख्सियत की ख़ास बात क्या होगी? उसके अख़लाक़ क्या होंगे? इन सब बातों के लिए पाएदार बुनियादें माँ के पेट में ही पड़ जाती हैं और इन बुनियादों के बनाने में माँ का बड़ा अहम किरदार होता है।

# १००३०-० ००१ अं 9

इस किरदार को सही तौर से अदा करने के लिए माँ को बड़ी तकलीफ़ों से गुज़रना पड़ता है और बड़े सख्ञ्त जिस्मानी, जज़बाती और नफ़सियाती मरहलों का सामना करना पड़ता है। इन मरहलों में माँ का सही रवैया उसकी सेहत के लिए भी ज़रूरी है और उसके बच्चे की सेहत के लिए भी | ऐसा सही रवैया अपनाने में माँ को भी अपना रोल अदा करना पड़ता है और उन लोगों को भी जो उसके साथ रह रहे हैं। ख़ास तौर पर शौहर यानी होनेवाले बच्चे के बाप को और उसके साथ-साथ घर के दूसरे लोगों, यानी होनेवाले बच्चे के दादा-दादी, नाना-नानी और दूसरे रिश्तेदारों को भी बेहतर रवैया अपनाना ज़रूरी होता है।

हम्ल के दौरान होनेवाली नफ़सियाती तब्दीली

हम्ल के दौरान औरत बहुत सारी जिस्मानी तब्दीलियों से गुज़रती है। जैसे ही उसके जिस्म में एक नए इनसानी वुजूद की परवरिश शुरू होती है, उसकी जिस्मानी ताक़तों का बड़ा हिस्सा, उस नन्हे वुजूद की परवरिश के लिए ख़ास हो जाता है। हार्मोन में बदलाव आने लगते हैं। जिस्म से बीमारियों को दूर करनेवाली ताक़त कम हो जांती है। बीमारियों का लगना आसान हो जाता है। कुछ औरतों के मसूड़ों में दर्द शुरू हो जाता है। किसी के जिस्म पर तरह-तरह के निशान और ऐंटठनें शुरू हो जाती हैं। जिस्म गर्म रहने लगता है। पसीना ज़्यादा आने लगता है। जोड़ों और पीठ में दर्द शुरू हो जाता है। उल्टी की शिकायत तो बहुत आम है। उठने, बैठने, सोने और लेटने में परेशानी होने लगती है। जिस्म की बनावट में होनेवाला बदलाव हर हरकत में रुकावट पैदा करना शुरू करता है। इस तरह के दसियों मसले पैदा होने लगते हैं। कुछ बदलाव बहुत तकलीफ़ देनेवाले होते हैं। उनमें से कुछ बदलाव वे होते हैं जिनको दूसरे लोग महसूस करते हैं। किसी भी परेशानी में आदमी के जिस्म के कुछ हिस्सों का बोझ बढ़ जाता है, लेकिन हम्ल एक ऐसा मरहला है जिसमें औरत के तमाम ज़ाहिरी और अन्दुरूनी हिस्सों का बोझ बढ़ जाता है। उसके दिल, गुर्दे और जिगर को भी बहुत ज़्यादा काम करना पड़ता है।

जी ख़ानदानी खुशियों कैसे हासिल की जाएँ?

जिस्मानी बदलाव तो फिर भी दूसरे लोग नोट करते हैं। असल मसला नफ़सियाती और जज़बाती बदलाव का होता है। ख़ास तौर पर वे लड़कियाँ जो पहली बार हम्ल के मरहले से गुज़र रही हों, उनके लिए यह मरहला बड़ा चैलेंजिंग होता है। हम्ल के शुरुआती वक्त में औरत के चेहरे पर निखार जाता है। सब लोग समझते हैं कि वह बेहद खुश है। बेशक हर औरत के लिए यह बहुत खुशी का मौक़ा होता है लेकिन खुशी के साथ-साथ बहुत-से नफ़सियाती चैलेंजों से भी उसे गुज़रना पड़ता है, जिसका दूसरे लोगों को अन्दाज़ा नहीं होता। हर हम्ल अपने-आपमें नया और अलग होता है और हर हम्ल के तजरिबे भी अलग होते हैं। इसलिए जो औरतें एक से ज़्यादा बार हामिला रह चुकी हैं वे भी कई बार नए चैलेंजों का सामना करती हैं।

हम्ल (गर्भ) ठहरते ही औरत के जिस्म में बहुत-से हार्मोनल बदलाव शुरू हो जाते हैं। उसके जिस्म का रासायनिक बैलेंस बदल जाता है। इसका सीधा असर उसके मिज़ाज और नफ़सियात पर भी होता है। मूड तेज़ी से बदलने लगता है। ख़ुशी मुसर्रत से शदीद घबराहट बेचैनी के मरहलले तक पहुँचने में कुछ सेकेंड से ज़्यादा नहीं लगते। हर आदमी ज़िन्दगी में जज़बाती ऊँच-नीच से गुज़रता है, लेकिन हामिला औरत बहुत ज़्यादा और बड़ी तेज़ी से इन मरहलों से गुज़रने लगती है। उसकी तबीयत हस्सास हो जाती है। इन्तिहाई मामूली बातों पर आँखों से आँसू बहने लगते हैं। कभी मिज़ाज में चिड़चिड़ापन जाता है, छोटी-छोटी बातों पर गुस्सा आने लगता है।

ये बदलाव सब औरतों में एक-सा नहीं होता औरत की शख्सियत, उसके लाशुऊर की प्रोग्रामिंग और उसके साथ रहनेवालों का रवैया और माहौल, इन सबका औरत को नार्मल रखने में अहम रोल होता है। मिसाल के तौर पर अगर शुरुआती दौर में औरत बहुत ज़्यादा तनाव का शिकार हो तो उसे मतली और उल्टी का सामना करना पड़ता है। नतीजे में वह मतली ही पर ध्यान देने लगती है, खाने-पीने से परहेज़ करने लगती है। खाने की कमी की वजह से और बीमार हो जाती है। अगर शुरुआत में वह एतिमाद के साथ हम्ल को क़बूल करे तो इस तकलीफ़ से बच सकती है।

ख़ानदानी खुशियाँ कैसे हासिल की जाएँ?

पहले तीन महीने

यह हम्ल का पहला मरहला होता है। पहली बार हामिला होनेवाली (गर्भवती) औरतों के लिए यह बिलकुल नया तजरिबा होता है। मूड में अचानक बदलाव आने शुरू हो जाते हैं। इस मरहले में इस्क्रात (गर्भपात, १5८४7792०) का ख़तरा ज़्यादा होता है। कुछ औरतें इस ख़तरे की वजह से डिप्रेशन का शिकार हो जाती हैं। ख़ास तौर पर जिन औरतों को पहले कभी ऐसे हादिसे से गुज़रना पड़ा, उनका डर सीरियस नफ़सियाती मसले भी पैदा कर सकता है। ऐसी औरतें इस मरहले में अपने हम्ल को छिपाने की भी कोशिश करती हैं।

चौथे से छठा महीना

आमतौर पर यह हम्ल के दौरान होनेवाली तकलीफ़ों के मुक़ाबले में आरामदेह मरहला होता है। शुरुआती तीन महीनों में औरत जिस ज़ेहनी दबाव से गुज़रती है, वह यहाँ किसी हद तक कम हो जाता है। गर्भपात का ख़तरा भी टल जाता है। इस मरहले में माँ के पेट में बच्चे हरकत करना शुरू कर देते हैं। बच्चा हाथ-पैर हिलाने लगता है और माँ उसके हरकत करने से बहुत खुश होती है। उसकी ख़ाहिश होती है कि शौहर यानी बच्चे का बाप भी इस हरकत को महसूस करे | इस दौर में एक और दिलचस्प बदलाव होना शुरू हो जाता है। औरत बहुत ज़्यादा अपने शौहर पर निर्भर हो जाती है| जिस्मानी बदलाव की वजह से वह चाहती है कि शौहर हमेशा उसके आसपास रहे। सातवें से नवाँ महीना

“इस मरहले में औरत बच्चा जनने के लिए अपने-आपको तैयार करती है। जहाँ आनेवाले बच्चे को लेकर बहुत-से ख़ाब होते हैं वहीं बहुत-से डर भी जन्म लेते हैं। पहली बार माँ बननेवाली औरत में दर्दे-ज़ेह (प्रसव पीड़ा, ]७०ए ?क्षा.5) का डर बहुत ज़्यादा होता है। अनगिनत सवाल होते हैं जिनका जवाब उसे नहीं मिलता आनेवाले बच्चे की सेहत और जिस्मानी बनावट वौगैरा के बारे में भी वह बहुत ज़्यादा फ़िक्रमन्द होती है। वक्त से पहले हो जानेवाली पैदाइश वगैरा का भी ख़ौफ़ सताता है।

रण 5३ केल्टअम ख़ानदानी ब्रानदानी खुशियों केसे हासिल की जाएँ?

माँ की नफ़सियाती सेहत का बच्चे पर असर

नई खोज से यह बात साबित हो चुकी है कि माँ के पेट ही में बच्चे की नफ़सियाती नशो-नुमा भी शुरू हो जाती है। पेट के बच्चे की नफ़सियात (#०४] 75५०४००४४) नफ़सियात का एक अहम विषय है। नवें हफ्ते यानी तीसरे महीने ही में बच्चा आवाज़ें सुनने और उसको रिस्पांस करने के लायक़ हो जाता है। माँ की आवाज़ पहचानने लगता है। कुछ और वक्त गुज़रता

है तो आवाज़ से माँ का मूड भी समझने लगता है। माँ जब हँसती है तो...

अल्ट्रासाउंड में उसका असर बच्चे पर साफ़ महसूस होता है। वह भी ख़ुशी का इज़हार करता है और उछलने-कूदने लगता है और अगर माँ ग़मगीन हो या तनाव का शिकार हो तो बच्चा उसका असर भी क़बूल करता है। रिसर्च से मालूम होता है कि हम्ल के दौरान तनाव, ग़लत सोच, हादिसे, झगड़े का असर बच्चे की जिस्मानी सेहत पर भी पड़ता है और नफ़सियाती सेहत पर भी। तनाव और नफ़सियाती उलझनों की शिकार माओं के बच्चे पैदाइशी बीमारियों का शिकार हो सकते हैं। उनका वज़्न कम रह जाता है। जिस्म के हिस्से पूरी तरह नहीं बन पाते। ज़ेहनी सलाहियत पर इसका असर पड़ता है। वे ए.डी.एच.डी. (७)प्ला)) जैसी नफ़सियाती बीमारियों का शिकार हो सकते हैं जो उन्हें अच्छा तालिबे-इल्म (विद्यार्थी) बनने नहीं देतीं। चुनाँचे हम्ल के दौरान जहाँ हामिला औरत की यह ज़िम्मेदारी है कि वह ख़ुद को सही सोच, अच्छे ख़यालात और पाकीज़ा कामों में लगाए रखे वहीं घर के सारे लोगों की ज़िम्मेदारी है कि इस मामले में उसकी हर मुमकिन मदद करें।

हम्ल के ताल्लुक़ से मुसबत (सकारात्मक) रवैया

ख़ुशगवार हम्ल के लिए पहली ज़रूरत यह है कि हम्ल के बारे में माँ का और दूसरे रिश्तेदारों का भी रवैया बेहतर हो। यह एक पाकीज़ा इनसानी ज़िम्मेदारी है। हामिला होने पर अल्लाह का शुक्र अदा करना चाहिए और बच्चे की सेहत और अच्छे अख़लाक़ के लिए अल्लाह से दुआ करनी चाहिए।

“जब मर्द ने औरत को ढछाँक लिया तो उसे हल्का-सा हम्ल (गर्भ)

ठहर गया जिसे लिए-लिए वह चलती-फिरती रही | फिर जब वह

ड्रानदानी खुशियों कैसे हातिल की जाएं...

बोझल हो गई तो दोनों ने मिलकर अल्लाह, अपने रब, से दुआ की कि अगर तूने हमको अच्छा-सा बच्चा दिया तो हम तेरे शुक्रगुज़ार होंगे ।” (कुरआन, सूरा-7 आराफ़, आयत-89)

“यह औरत के लिए बहुत बड़ा शर्फ़ (सम्मान) है कि दुनिया के पैदा करनेवाले ने इनसान की पैदाइश के लिए उसके पेट को चुना है। वह नहीं जानती कि उसकी कोख में पल रही यह नन्‍्ही-सी जान, किन बड़ी खूबियों और सिफ़ातों से सजी होगी और इनसानियत के लिए क्या-क्या लेकर आएगी। एक ईमानवाली औरत हम्ल को मुसीबत नहीं समझती, बल्कि पूरे जोश ख़रोश और अच्छे तरीक़े से करने, ख़ुदा के लिए शुक्र का जज़बा और होनेवाले बच्चे के सिलसिले में अच्छी उम्मीदों और ख़ाबों के साथ इस पाकीज़ा ज़िम्मेदारी को पूरा करने के लिए तैयार हो जाती है। इस ज़माने में अल्लाह की ख़ास रहमत भी उसकी तरफ़ होती है। कई हदीसों से मालूम होता है कि हम्ल माँ की फ़ज़ीलत का एक अहम सबब और औरत के लिए अज्र हासिल करने का एक अहम ज़रिआ है। अल्लाह के पैगम्बर (सल्ल.) ने हम्ल और पैदाइश के दौरान मौत को शहादत की मौत क़रार दिया है, (हदीस : अबू-दाऊद)। अल्लाह के पैगम्बर (सल्ल.) ने माँ के हक़ को बाप से ज़्यादा क़रार दिया है। आलिमों ने इसकी वजह यही बताई है कि माँ हम्ल, पैदाइश और दूध पिलाने के सख्त मरहलों से गुज़रकर उसकी परवरिश करती है।

कुछ लोग जब हम्ल नहीं चाहते या उसकी उम्मीद नहीं रखते लेकिन इसके बावजूद हम्ल ठहर जाता है तो ऐसी सूरत में औरत और उसके जान-पहचानवाले तनाव के शिकार हो जाते हैं। हम्ल के चाहने की वजह से उसके लिए उनका रवैया बुरा हो जाता है। इस्लाम ने वज़ाहत की है कि हम्ल का ठहरना या ठहरना यह खुदा की मरज़ी का हिस्सा है। पैगम्बर (सल्ल.) ने एक हदीस में साफ़ फ़रमाया है कि हम्ल का होना होना तक़दीर से है, (हदीस : मुस्लिम)। इसलिए ईमानवाले बन्दे को अल्लाह के देने पर हमेशा खुश रहना चाहिए।

कुछ औरतों की ख़ाहिश लड़के की होती है और उन्हें यह फ़िक्र रहती है कि कहीं लड़की पैदा हो जाए। यह सोच भी गलत रवैये की वजह बनती

यम ख़ानदानी खुशियों कैसे हासिल की जाएँ।

है। इस्लाम इस सोच की भी सख्ती से मज़म्मत (निंदा) करतो है। लड़कियों की पैदाइश और उनकी परवरिश जन्नत को हासिल करने का ज़रिआ है।

कुछ औरतों को पैदाइश के मरहले का डर, पैदाइश के बाद बीमार होने, मोटे हो जाने और हुस्न में कमी जाने का डर भी सताता है। एक ईमानवाली औरत अल्लाह पर भरोसा करती है। वह यह यक़ीन रखती है कि वह इनसानी नस्ल के बढ़ाने की पाकीज़ा ज़िम्मेदारी अंजाम दे रही है। अल्लाह उसके साथ अच्छा मामला करेगा और जो मामला भी अल्लाह करेगा, उसमें आखिरकार भलाई ही होगी। इसलिए उसे तनाव में पड़ने की ज़रूरत नहीं ! एक ईमानवाली औरत अल्लाह से इस हालत में अपने लिए और अपने होनेवाले बच्चे के लिए ख़ैर और भलाई की दुआ करती रहती है। कुरआन में अल्लाह ने एक नेक बन्दी मरयम (अलैहि.) की माँ के जज़बात को बयान करते हुए कहा है-

“(वह उस वक्त सुन रहा था) जब इमरान की औरत कह रही थी

कि-मेरे पालनहार! मैं इस बच्चे को जो मेरे पेट में है तेरी नज़

(भेंट) करती हूँ, वह तेरे ही काम के लिए वकृफ़ होगा ।”

(कुरआन, सूरा-8 आले-इमरान, आयत-$5)

हामिला (गर्भवती) औरत के साथ अच्छा रवैया

एक सेहतमन्द और तनदुरुस्त माँ ही सेहतमन्द बच्चे को जन्म दे सकती है। हम्ल के दौरान माँ के खाने-पीने पर ख़ास ध्यान देना चाहिए। घर के दूसरे लोगों को चाहिए कि होनेवाली माँ के खाने-पीने का ख़ास ख़याल रखें और इस बात को यक़ीनी बनाएँ कि वह अच्छे खान-पान की पाबन्दी कर रही हो। कभी-कभी हामिला औरत, इस दौरान में जिस नफ़सियाती कैफ़ियत से गुज़र रही होती है, उसकी वजह से अपने-आपपर और अपने खाने-पीने पर ध्यान नहीं दे पाती। यह शौहर और घर के दूसरे लोगों की ज़िम्मेदारी है कि उसका ख़याल रखें | इसी तरह यह भी ज़रूरी है कि उसको नफ़सियाती सपोर्ट दिया जाए। उसे और उसके पेट में पल रहे मासूम बच्चे को ख़ुशगवार और सेहतमन्द माहौल दिया जाए। इस मरहले में अगर शौहर

'्रानदानी खुशियाँ कैसे हासिल की जाएँ? 299

और दूसरे क़रीबी रिश्तेदार औरत को जज़बाती सहारा दें, उसकी हिम्मत बढ़ाएँ और दिलजोई करें, उसे अपने चारों तरफ़ खुशियों और बेपनाह . मुहब्बतों से भरा हुआ पाकीज़ा और सेहतमन्द माहौल मिले, उसे यह महसूस हो कि घर का हर-हर हिस्सा नएं मेहमान की ख़बर पर बहुत ज़्यादा खुश खुर्रम है और उसपर जान निछावर किए हुए है, तो ऐसे माहौल में हामिला औरत आसानी से ऊपर दिए गए नफ़सियाती चैलेंजों का: मुकाबला कर सकती है और खुश खुर्रम रह सकती है। वह खुश और मुत्मइन रहेगी तो उसका बच्चा भी सेहतमन्द रहेगा।

हमारे रिवायती समाज में आमतौर पर इन बातों का ख़याल नहीं रखा जाता। ख़ास तौर से पहले हम्ल में, जबकि लड़की अभी नातजरिबेकार नई- नवेली दुल्हन होती है, हम्ल के बाद उसकी मुश्किलों में और बढ़ोत्तरी होती है। रिवायती समाज ने सास और बहू का एक ख़ास रिश्ता बना दिया है। शादी के बाद कुछ दिन तो सब सही चलता है लेकिन हम्ल का मरहला आते- आते बहुत-से घरों में मन-मुटाव शुरू हो जाते हैं और उनका असर बहू के खाने-पीने पर पड़ता है। उसके ख़ास खान-पान की ज़रूरत का ख़याल नहीं रखा जाता। हम्ल की वजह से वह जल्दी थक जाती है। पहले हम्ल में तो बहुत ज़्यादा आराम की ज़रूरत पेश आती है। ऐसे में फ़ितरी तौर पर घरेलू काम-काज भी मुतास्सिर हो सकता है। इससे भी झगड़े पैदा होने लगते हैं।

जहेज़ के लालची ख़ानदानों में जहेज़ और दूसरी माँगों को लेकर झगड़े भी इस दौरान बढ़ जाते हैं। यह बड़ी बदक़िस्मती की बात है कि कई घरानों में अस्पताल, इलाज और उसमें होनेवाले ख़र्चों को लेकर औरत के मैके और ससुराली ख़ानदान में झगड़े शुरू हो जाते हैं। इस्लाम ने बहुत साफ़ तौर पर बीवी के ख़र्चे शौहर के ज़िम्मे रखे हैं। शौहर के लिए हरगिज़ जाइज़ नहीं कि वह बच्चे की पैदाइश वगैरा का बोझ अपनी ससुराल पर डाले और यह जाइज़ है कि ताक़त के बावजूद वह अपनी बीवी को बेहतर-से-बेहतर इलाज की सहूलत फ़राहम करने में किसी काहिली से काम ले। एक हामिला औरत जो बहुत ज़्यादा ज़ेहनी और जिस्मानी दबाव के दौर से गुज़र रही है, उसे यह मालूम हो कि उसकी हस्ती को लेकर उसके ससुराल और मैकेवाले

कर गत जी 2 ख़ानदानी खुशियों कैसे हासिल की जाएँ?

लड़ रहे हैं, तो उसके दिल पर क्या गुज़रेगी? फ़ितरी तौर पर हम्ल के इस सख्त मरहले में, ऐसे झगड़े की जज़बाती तकलीफ़ कई गुना बढ़ जाती है। यह बहुत बड़ा ज़ुल्म है जो हमारे समाज में बहुत-सी मासूम लड़कियों की सेहत ही बरबाद नहीं करता, बल्कि उनकी कोख में पल रही अगली नस्लों पर भी बहुत ज़्यादा ख़राब असर डालता है।

हामिला (गर्भवती) औरत और पाकीजा दीनी माहौल

साइंस और रिवायतों दोनों से यह बात साबित है कि होनेवाले बच्चे पर माँ के खान-पान, माहौल, घरेलू रिश्ते, उसके अख़लाक़ किरदार का गहरा असर पड़ता है। कोख में पल रहे बच्चे को अपनी माँ से खान-पान मिलता है। इसलिए जहाँ यह ज़रूरी है कि यह खान-पान भरपूर और सेहतमन्द हो वहीं यह भी ज़रूरी है कि यह हलाल और पाकीज़ा हो इस्लामी इतिहास में हमको कुछ माओं के हैरतअंगेज़ क़िस्से मिलते हैं, जिन्होंने अपनी औलाद को हराम लुक्मों से बचाने के लिए गैर-मामूली एहतियातों से काम लिया। जिस तरह हम्ल के दौरान जिस्मानी खान-पान पर ध्यान ज़रूरी है उसी तरह बल्कि उससे ज़्यादा रूहनी खान-पान पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है। यह वह दौर है जिसमें मासूम बच्चे के लाशुऊर की बुनियादें पड़ रही हैं। इस दुनिया से उसका सारा ताल्लुक़ उसकी माँ के वास्ते से है। चुनाँचे माँ जो कुछ करती है और सोचती है या उसके आसपास के माहौल में जो कुछ होता है, उसका असर इस नए मेहमान की शस्सियत की बुनियादों पर पड़ता है। एक सच्ची मुसलमान औरत, हम्ल के ज़माने में अपनी मसरूफ़ियतों और कामों के सिलसिले में ज़्यादा हस्सास हो जाती है। क्कुरआन का ज़्यादा-से-ज़्यादा पढ़ना और उसपर गौर-फ़िक्र करना, अल्लाह को याद करना, नमाज़ की पाबन्दी करना, ताक़त-भर नफ़्ल का एहतिमाम करना, पाकीज़ा बातचीत, अच्छे लोगों के क़िस्से वगैरा से हामिला (गर्भवती) औरत को भी सुकून मिलेगा और उसका बच्चा भी सेहतमन्द और जिस्म सीरत के हुस्न से मालामाल होगा | हामिला औरत के साथ घर के दूसरे लोगों की भी ज़िम्मेदारी है कि वे इस बात को यक़ीनी बनाएँ कि बच्चे को अपनी परवरिश के लिए

म़ानदानी खुशियों कैसे हासिल की जाएँ?...........्‌

पाकीज़ा माहौल मिले। घर में अच्छी बातें होती रहें। जो आवाज़ें भी माँ के पेट में पल रहे उस नन्हे वुजूद के लाशुऊर से टकराएँ वे पाकीज़ा और किरदार बनानेवाली आवाज़ें हों। नमाज़ और कुरआन का समझकर पढ़ना होता रहे | दुआएँ पढ़ी जाती रहें | घर के लोग एक-दूसरे के साथ अच्छे लहजे में और मुहब्बत के साथ बात करें।

शोर-शराबा और तेज़ आवाज़ें बच्चे के परवान चढ़ने के लिए बहुत नुक़सानदेह होती हैं। ऐसी आवाज़ों पर बच्चा पेट में बेचैन हो जाता है। अगर घर में लड़ाई-झगड़े का माहौल हो, या रात-दिन टीवी चल रहा हो और उसपर शोर-शराबा और बेहूदा बातों का हंगामा बरपा हो या आसपास गाली- गलोज और गन्दी बातें चल रही हों, तो इन सबका बुरा असर बच्चे के लाशुऊर पर पड़ता है। इसी तरह माँ के अन्दर छल-कपट, हसद, घमण्ड, झूठ, नफ़रत वगैरा जैसी अख़लाक़ी बुराइयाँ हों तो वह अपने ख़ून के साथ उनके असर को भी अपने हम्ल तक पहुँचाती है।

यह बात कई खोजों (रिसर्चों) से साबित हो चुकी है कि माँ अपने बच्चे के बारे में जो कुछ सोचती है, उसका असर भी बच्चे की शख़्सियत पर पड़ता है। ऐसी रिसर्चे भी मौजूद हैं कि जिन माओं ने डरावनी फ़िल्में देखने में वक़्त गुज़ारा और उनके डरावने किरदार हम्ल के दौरान उनकी निगाहों में घूमते रहे, उनके बच्चे डरावनी शक्ल सूरत के साथ पैदा हुए। इसलिए इस दौरान ज़्यादा-से-ज़्यादा नबियों, सहाबा और दूसरे नेक लोगों और बुजुर्गों की सीरत को पढ़ते रहना चाहिए | अपने बच्चे को उनके जैसा बनाने का ख़ाब देखना चाहिए। शायद इसी वजह से कुछ लोगों में हम्ल के दौरान ख़ास तौर से सूरा-9 मरयम और सूरा-2 यूसुफ़ पढ़ने का रिवाज है।

अपने बच्चे के भविष्य के बारे में अच्छा सोचने के लिए बाक़ायदा अभ्यास भी बताए जाते हैं, जिन्हें वीज़ोलाइज़ेशन या इमेजरी (788०9) कहा जाता है। इसमें औरत माहिर काउंसलर की निगरानी में अपने होनेवाले बच्चे के बारे में सोचती है। उसके शानदार और पाकीज़ा भविष्य का तसव्युर करती है। जागती आँखों से उसके बारे में ऊँचे ख़ाब देखती है। ऐसे तसव्वुगत का गहरा असर अब साइंसी लिहाज़ से साबित है।

| ०0 | गण ख़ानदानी ब्रानदानी खुशियों केसे हासिल की जाएँ?

क्षुरआन ने नेक औलाद के लिए बहुत खूबसूरत दुआएँ सिखाई हैं। इन दुआओं को इस अर्से में सुबह शाम ज़्यादा-से-ज़्यादा दोहराते रहिए इससे अल्लाह की मदद साथ भी मिलेगा और आपके तसब्बुरात भी पाकीज़ा हो जाएँगे। रब्बि हब ली मिल-लदुन-क जुर्रिय्यतन तस्यि-बतन इन-न-क समीउहुआ। “पालनहार! अपनी कुदरत से मुझे नेक औलाद दे। तू ही दुआ सुननेवाला है।” (कुरआन, सूरा-5 आले-इमरान, आयत-38) रब्बि हब ली मिनस्सॉलिहीन। “ऐ परवरदिगार! मुझे एक बेटा दे जो नेक लोगों में से हो ।” (कुरआन, सूरा-37 साफफ़ात, आयत-00) रब्बना हब लना मिन अज़वाजिना ज़ुर्रिय्यातिना कुर-र-्त अअआयुनिवं॑ वज-अलना लिल-मुत्तक्ी-न इमामा। “ऐे हमारे रब! हमें अपनी बीवियों और अपनी औलाद से आँखों की ठण्डक दे और हमको परहेज़गारों का इमाम बना |” (कुरआन, सूरा-25, फ़ुरक़ान, आयत-74)

जाप शक कस जक

बच्चे क्या चाहते हैं?

हर माँ-बाप की यह ख़ाहिश होती है कि वे अपने बच्चे के मिसाली माँ-बाप बनें। उसकी हर ज़रूरत पूरी करें और उसकी ज़िन्दगी को ज़्यादा बेहतर और बामक़सद बनाएँ | यह सवाल हर माँ-बाप के सामने आता है कि क्या इस सिलसिले में वे अपनी ज़िम्मेदारियाँ सही तरीक़े से अदा कर रहे हैं? क्या बच्चे के लिए उनका रवैया सही है? और कया उनका बच्चा उनसे ख़ुश है? इस फ़िक्रमन्दी के बावजूद सही बात यह है कि अकसर माँ-बाप वह सही नज़र और रवैया नहीं रखते जिसकी बच्चे को ज़रूरत होती है।

नफ़सियात के माहिरों के मुताबिक़ हर बच्चा मुहब्बत, तवज्जोह और अहमियत चाहता है। लेकिन सबसे अहम बात यह है कि वह अपना मक़ाम और अपनी मुस्तक़िल हैसियत और पहचान चाहता है उसकी हैसियत और पहचान का शुऊर हमें उसे सही तरह से समझने में मदद करता है और गहराई से उसके एहसासों को समझने के लायक़ बनाता है। बच्चों की ज़रूरतें, उनकी ख़ाहिशें और उनके शौक़, ये सारी चीज़ें हम भी जान सकते हैं अगर हम उनसे क़दम-से-क़दम मिलाकर चलें एक बच्चे में भी वे सारे एहसास होते हैं जो एक बालिग आदमी में होते हैं, लेकिन उसके पास तजरिबे की कमी होती है बच्चा एहसास तो रखता है लेकिन उनको बयान नहीं कर पाता | अपने जज़बात को वह अलफ़ाज़ की शक्ल नहीं दे सकता | इसलिए यह माँ-बाप का फ़र्ज़ है कि अपने बच्चे के जज़बात को समझें और उन जज़बों को लफ्ज़ों में पिरोने में उसकी मदद करें।

बच्चों का अपने लिए फ़ुरसत का कुछ वक्‍त

“मुझे कुछ फ़ुरसत के लम्हे चाहिएँ स्कूल होमवर्क, ट्यूशन, कराटे की क्लास और तैराकी ये सब मुझे थका देते हैं।”

क्या आपका बच्चा गैर-मामूली तौर पर मसरूफ़ है? क्या उसके पास

कर 4 कक जप] ख़ानदानी खुशियों कैसे हासिल की जाएँ?

उसके अपने लिए फ़ुरसत के लम्हे हैं? नफ़सियात के माहिरों ने आजकल मसरूफ़ माँ-बाप की ज़िन्दगियों में एक नए रुझान को नोट किया है। अपने बच्चों को अपने वक्त्त के साँचे में ढालने का रुझान अपने सबसे मसरूफ़ वक्‍त के साँचे में हम अपने बच्चों को भी ढालना चाहते हैं। हम चाहते हैं कि हमारा बच्चा वे सारी ज़िम्मेदारियाँ सम्भाले जो उसकी पहुँच से बाहर हैं। मक़सद के पीछे बुरी तरह भागते बच्चे के पास कुछ लम्हे भी नहीं होते जिनमें वह अपने तसव्वुरात और सलाहियतों की दुनिया में कुछ वक्त गुज़ार सके बच्चे जब खेलते हैं और खुली वादियों और मैदानों में घूमते हैं तो उनका दिमाग़ कायनात के बहुत छिपे हुए राज़ों और नई-नई चीज़ों को जानने और अक्ल समझ को बढ़ाने में मसरूफ़ होता है। वे एक पेड़ को देखते हैं और सोचते हैं कि वह ऐसा क्यों है। एक जानवर को देखते हैं और सोचते हैं कि वह ऐसा क्‍यों कर रहा है। होमवर्क और क्लासों के बोझ में . फँसे आज के बच्चे के पास यह सोचने के लिए वक्त ही नहीं है। जबकि छिपी हुई नई-नई चीज़ों को जानने की सलाहियतों को उजागर करने के लिए फुर्सत के लम्हे बहुत अहम होते हैं। बचपन सिर्फ़ गुज़ार देने के लिए नहीं होता। यह ज़िन्दगी का बहुत अहम दौर होता है और इसी दौर में शख््सियत की बुनियादें बन जाती हैं। इसलिए अपने बच्चों के औकात और उनकी मसरूफ़ियतों का इन्तिज़ाम करते हुए हमें सूझ-बूझ से काम लेना चाहिए। फ़ुरसत के लम्हे उनको देने का मतलब यह नहीं है कि उनके साथ टीवी के सामने घंटों बैठ जाएँ, बल्कि उन्हें टहलने के लिए ले जाएँ या उनके साथ पढ़ें या खेलें।

खेल के वक्त और तख़लीक़ी (रचनात्मक) खेल

“मुझे अपने पापा के साथ खेलना बहुत पसन्द है। वे मुझे तैराकी

करवाने ले जाते हैं और मेरे साथ फुटबॉल भी खेलते हैं।”

कुछ लोग यह समझते हैं कि बच्चों के साथ क्या खेलें? बच्चों के साथ तो बच्चे ही खेल सकते हैं। लेकिन हक़ीक़त यह है कि अपने और बच्चे के बीच मौजूद दीवार को गिराना है और इस रिश्ते को मज़बूत करना है तो खेल

खानदानी खुशियों कैसे हासिल की जाएं? ..........._

एक बहुत ही अच्छा ज़रिआ है। नफ़सियात के माहिरों की यही राय है कि बच्चों के साथ खेलना बहुत ज़रूरी है, चाहे वह खेल पहाड़ी से पत्थर चुनना ही क्‍योंनहो।

अल्लाह के पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल-) हसन हुसैन (रज़ि.) को अपने कन्धों पर बिठकर सवारी कराते थे। बच्चों के साथ खेलने के कई क़िस्से हमें. पैगम्बर (सल्ल.) की ज़िन्दगी में मिलते हैं!

बच्चे की तख़लीक़ी (रचनात्मक) सलाहियतों की तरक्क़ी के लिए आपके लगातार हौसला बढ़ाने और ध्यान देने की ज़रूरत होती है। बच्चा चाहे छह (6) या दस (0) साल का ही क्‍यों हो, वह चाहता है कि आप उसे क़बूल करें, उसे मानें और वह सीखता ही अपने-आपको मनवाकर है। यह एक कुदरती बात है कि हर इनसान अपने हर काम को सही समझता है, चाहे वह एक छोटी-सी उम्र का बच्चा ही क्यों हो। अपने बच्चों से मुहब्बत कीजिए। उनके साथ गुज़रे वक्त को कुज़ूल मत समझिए। बहुत गौर से * उनकी बातें सुनिए और उनका हौसला बढ़ाइए। बच्चों के साथ खेल के वक्त को रोज़ाना की आदत बनाइए। बच्चों से राबिता रखने (0०प्रगापांव्बांग) के लिए यह एक बहुत बड़ा हथियार है। बच्चे रस्मी बातचीत को पसन्द नहीं करते। खेल के दौरान ही आप उनसे बहुत कुछ डिस्कस कर सकते हैं। आप यह जान सकते हैं कि आपकी गैर-मौजूदगी में या स्कूल का वक्‍त उसने कैसे और किसके साथ गुज़ारा? खेलते-खेलते बातचीत के दौरान आपको मालूम होगा कि आपके बच्चों के साथी-दोस्त कैसे हैं? वह उनसे अपने ताल्लुक़ को कैसे निभाता है? अगर बचपन से ही आप बातचीत और कम्यूनिकेशन की आदत डालेंगे, चाहे आज यह बातचीत आपके लिए गैर-अहम ही क्‍यों हो, तो आगे अपनी ज़िन्दगी के अहम मौक़ों पर भी वह सारी बातों को बिना किसी हिचकिचाहट के आपके सामने बयान करेगा। और आपके और उसके बीच वह दूरी (09) नहीं रहेगी जिसकी शिकायत अकसर नई उम्र (7०८०४४०७) और नौजवान बच्चों के माँ-बाप करते हैं।

7 - ख़ानदानी बरानदानी खुशियाँ केसे हासिल की जाएं?

मेहरबानी करके मेरी सुनिए

“मेरे पापा मुझे हर रात टहलाने ले जाते हैं और गुज़रे हुए दिन

की मसरूफ़ियत पूछते हैं।”

बहुत-से माँ-बाप को यह कहते तो सुना है कि हम अपने बच्चों से बातें करने की बहुत कोशिश करते हैं, मगर वे अपनी दिन-भर की मसरूफ़ियत हमें बताते नहीं हैं। लेकिन आप सब्ज़ी बना रही हों, या कपड़े तह कर रही हों, या आप कम्प्यूटर के सामने स्क्रीन पर नज़रें जमाई बैठी हों, तो क्या बच्चा कुछ बोल पाएगा? उसे आपकी तवज्जोह चाहिए। आपसे नज़र का राबिता (8५6 ००7४०) चाहिए। हर बच्चा अपने माँ-बाप से भरपूर वकृत और तवज्जोह चाहता है। बटी हुई तवज्जोह वह क़बूल नहीं करता है।

नफ़सियात के माहिर लोग मनोविज्ञानी (25/०॥००१9) यह मश्वरा देते हैं कि बच्चे की बात पूरी तवज्जोह से सुनी जानी चाहिए। उसपर ज़ाहिर कीजिए कि आप सुन रही हैं और उसी की तरफ़ ध्यान दे रही हैं। जब वह देखेगा कि आपकी भरपूर तवज्जोह उसे हासिल है तो वह आपपर भरोसा करेगा और अपनी ज़िन्दगी की कोई बात कहने से नहीं हिचकिचाएगा |

इस दौरान माँ-बाप अपने बच्चों का गहराई से मुशाहदा (अवलोकन) कर सकते हैं। भरपूर तवज्जोह से उन्हें सुनिए उनके सामने जो मुश्किलें हैं उनको समझने की कोशिश कीजिए आपका बच्चा जिसकी उम्र सिर्फ़ सात साल है, उसकी और आपकी सोच में फ़र्क़ फ़ितरी है। कुछ बातें जो आपके नज़दीक गैर-अहम हैं उसके लिए अहम हो सकती हैं। ऐसी सूरत में उसपर ज़ाहिर होने दें कि उसकी बात को हम अहम नहीं समझ रहे हैं। उसकी बातों को अहमियत दें। कुछ माँ-बाप ऐसा भी करते हैं कि बच्चा अपनी बात की शुरुआत ही करता है और उन्हें कहीं कुछ ग़लत लगता है तो टोक देते हैं, आगे क्या हुआ वह बिलकुल नहीं बताएगा। ऐसा हरगिज़ करें बहुत तवज्जोह और सब्र से उसकी पूरी बात सुनें, फिर उसे मश्वरा दें।

एक बहुत ही अहम बात यह है कि अपने बच्चे को भरपूर तवज्जोह से सुनें। वह आपको बताएगा कि उसे कैसे परवान चढ़ाना है। अगर आप

ख़ानदानी खुशियों कैसेहासित की जाए...

चाहते हैं कि बच्चा आपकी बात सुने तो आपको पहले उसकी बात सुननी होगी। बच्चों को कभी लेक्चर दें। उन्हें अच्छे और बुरे दोनों पहलुओं से आगाह कर दें और फ़ैसला उन्हें करने दें। अपनी तवज्जोह और मुहब्बत से उनके रवैयों को सही करें। मॉ-बाप के झगड़े

“जब कभी मम्मी और पापा आपस में लड़ते हैं तो मैं सहम जाती

हूँ। रोना चाहती हूँ लेकिन रो नहीं पाती हूँ।””

एक बहुत मशहूर बात है, “अगर आप किसी के बारे में अच्छी राय क़ायम नहीं कर सकते तो कुछ भी कहने से बचिए |” माँ-बाप का अपने बच्चों के सामने लड़ना-झगड़ना बच्चों के लिए बहुत ही नुक़सानदेह होता है। यह उनके लिए ज़हर है। उनकी शख्सियत को तोड़-मरोड़ देता है। एक साइकाइट्रिस्ट (मनोचिकित्सक) के मुताबिक़ बच्चों के सामने लड़ाई "एक ख़ामोश बीमारी! है।

कुछ माँ-बाप बच्चों का सहारा लेकर भी लड़ते हैं और यह चीज़ बच्चों के एहसासों को चोट पहुँचाती है। वे उदासी से सोचते हैं कि इस झगड़े की असल जड़ वे हैं और यह चीज़ उनकी शख़्सियत को कुचल देनेवाली होती है।

मामूली लड़ाई-झगड़े तो हर घर में होते ही रहते हैं, लेकिन रोज़-रोज़ के लड़ाई-झगड़े से बच्चों पर गलत असर पैदा होने लगते हैं। इसलिए माँ-बाप को चाहिए कि बच्चों के सामने बिलकुल भी लड़ें, ख़ामोशी इस््तियार करें बच्चों का ख़मीर ही मुहब्बत से बना होता है। वे चाहते हैं कि माँ-बाप उनसे मुहब्बत करें और आपस में भी करें। कोशिश यह करनी चांहिए कि बच्चों के सामने लड़ें या ऐसा हो भी जाए तो उनके सामने ही उस झगड़े को ख़त्म करना ज़रूरी है। मुहब्बत का इजहार भी करें

“क्या ही अच्छा हो मम्मी-पापा हमेशा मुझसे कहें कि हम तुमसे

बहुत मुहब्बत करते हैं!”

96 ख़ानदानी खुशियाँ कैसे हासिल की जाएँ?

सभी माँ-बाप अपने बच्चों से मुहब्बत करते हैं। लेकिन कुछ बच्चे जान ही नहीं पाते कि उनके माँ और बाप उनसे कितनी मुहब्बत करते हैं! अगर आप बच्चे से मुहब्बत करते हैं तो उसे महसूस भी होने दें।

एक और नफ़सियात के माहिर का ख़याल है कि आप अपने बच्चे से जितनी मुहब्बत करते हैं उसका इज़हार भी करें और हर रोज़ एक मर्तबा उसके इज़हार का मौक़ा निकालें | अल्लाह के पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल.) ने हमें हुक्म दिया है कि जिससे भी हमको मुहब्बत हो उसका इज़हार करें-

“अगर तुम अपने भाई से मुहब्बत करते हो तो तुम्हें चाहिए कि

उसको यह बता दो कि तुम्हें उससे मुहब्बत है।”

(हदीस : अबू-दाऊद)

बच्चे तो इस इज़हार के ज़्यादा ज़रूरतमन्द हैं। एक नवजात बच्चा अपनी नई-नई दुनिया को लम्स (स्पर्श), नज़र, आवाज़ और खुशबू से ही _ समझ पाता है। फिर धीरे-धीरे वह अपने माँ-बाप के स्पर्श से ही उनसे अपना रिश्ता समझता है। इस बच्चे के लिए आपके चेहरे के जज़बात और आपकी आवाज़ बहुत अहम बन जाती है। अगर इस बच्चे के काम करते हुए उसकी माँ और दूसरे रिश्तेदार हमेशा परेशान रहें, गुस्सा और चिड़चिड़ेपन का मुज़ाहरा करें, या उसके साथ फूहड़पन से पेश आएँ तो बच्चा जान लेगा कि लोगों के साथ रहना कोई ख़ुशगवार तजरिबा नहीं है। आपसी एतिमाद का जज़बा परवान नहीं चढ़ेगा और दूसरे लोगों से ताल्लुक़ क़ायम करते हुए उस बच्चे को हमेशा दुश्वारी पेश आएगी। चुनाँचे मुहब्बत और ख़ुलूस के इज़हार की बड़ी अहमियत है। नन्‍्हे-मुन्ने बच्चों को प्यार करना, गले से लगाना और उनसे कहना कि मैं आपपर फ़ख्र करता हूँ/करती हूँ, उनकी शस्सियत को बाएतिमाद और पुरउम्मीद बनाने और फ़िक्र का सही तरीक़ा पैदा करने में अहम रोल अदा करता है। बार-बार तारीफ़ कीजिए, लेकिन ईमानदारी के साथ और बगैर किसी बनावट के। बच्चे जान जाते हैं कि आपकी बात आपके दिल की बात है या सिर्फ़ बनावटी है।

ख्रानदानी खुशियों कैसे हासिल की जाएँ?

हमें अपने ख़ाबों को पूरा करने का मौक़ा दीजिए

“जब मैं कहूँ कि मैं बस कंडक्टर बनना चाहता हूँ तो हँसिए

मत।”

हमें अपने बच्चों की पसन्द और उनके ख़ाबों के लिए बहुत हस्सास होना चाहिए बच्चे अपनी ज़िन्दगी की सल्तनत में अपनी हुक्मरानी चाहते हैं। वे चाहते हैं कि उन्हें भी फ़ैसला करने का मौक़ा मिले। अगर कुछ एहतियात से उन्हें यह मौक़ा दिया जाए तो उन्हें यक्नीन और हिफ़ाज़त का एहसास होगा। और वे समझेंगे कि उनके माँ-बाप उनकी सही फ़रिक्र करते हैं। नौउम्र बच्चों के माँ-बाप को अपने बच्चों की सम्त (दिशा) सही रखने की कोशिश करनी चाहिए, लेकिन यह कोशिश इस तरह होनी चाहिए कि बच्चे को हर फ़ैसला अपना फ़ैसला महसूस हो। उसे ज़ोर-ज़बरदस्ती का एहसास हो। माँ-बाप एक हद में रहते हुए उनकी देखभाल करें, वरना बच्चे उन्हें अहमियत और इज़्ज़त देना छोड़ देंगे वह बात जिसे हम बच्चे के लिए बेहतर समझते हैं, उसके बेहतर होने का इमकान भी मौजूद है। इस इमकान को नज़रन्दाज़ नहीं करना चाहिए इसलिए बच्चे को फ़ैसले की आज़ादी दीजिए और यह भी बताइए कि हर आज़ादी के साथ ज़िम्मेदारियाँ भी लगी होती हैं।

एक बच्चे की ज़बान में उसकी अहम माँगों का खुलासा हम इस तरह कर सकते हैं-

0) मुझे अपने बेहतर तज्ज़े-अमल और अपनी मिसाल से सिखाइए कि मैं खुद से मुहब्बत कैसे कर सकता हूँ? और तवज्जोह और एतिमाद का मतलब क्या है?

0) मेरी मौजूदगी को महसूस कीजिए। मेरे वुजूद से ख़ुशी और सुकून हासिल कीजिए ताकि मैं इस एहसास और एतिमाद के साथ बड़ा होऊँ कि मैं भी अहम हूँ और मैं दूसरों के अन्दर भी खुदी (अभिमान) के इस एहसास को जगा सकूँ।

(0) कुशादा और मुहब्बत से भरे दिल रखिए। पूरी तवज्जोह से मुझे

98 ख़ानदानी खुशियाँ कैसे हासिल की जाएँ?

(0)

(९)

(शं)

(शो)

(शो)

(0

8

सुनिए ताकि मैं जानूँ कि मुझे देखा और सुना जा रहा है। और खुद भी मैं बाद में एक अच्छा सुननेवाला बन सकूँ।

मेरी अच्छी बातों की बार-बार तारीफ़ करते रहिए मुझे बताते रहिए कि मेरी कौन-सी बातें आपको पसन्द रही हैं। मुझे मालूम होगा कि मैं भी किसी लायक़ हूँ और मुझे भी दूसरों की अच्छी बातों की तारीफ़ करने का सलीक़ा आएगा।

हँसिए और मुझको भी हँसाइए। ज़िन्दा-दिली का मुज़ाहरा कीजिए ताकि मैं अपनी ज़िन्दगी को मज़ेदार बना सकूँ और दूसरों की ज़िन्दगियों में भी खुशियों का ज़रिआ बन सकूँ।

मुझमें नज़्म ज़ब्त (0)999॥70०) पैदा कीजिए और मेरी ग़लतियों को ख़ुलूस और प्यार के साथ सुधारिए, ताकि मैं एक अच्छी ज़िन्दगी खुद्दारी और एतिमाद के साथ गुज़ार सकूँ।

मुझे ग़लतियाँ करने और ख़ुद अपनी राय क़ायम करने का मौक़ा दीजिए, ताकि मैं आज़ादाना फ़ैसले करने और उन फ़ैसलों की ज़िम्मेदारी क़बूल करने के लायक़ बन सकूँ।

अपनी ज़िन्दगी को भरपूर तरीक़े से गुज़ारिए हौसला बुलन्द रखिए और जोश वलवले के साथ अपनी उमंगों और ख़ाबों को पूरा कीजिए ताकि मैं भी आपके वलवलों, जोश और तवानाई का कुछ हिस्सा हासिल करूँ और भरपूर ज़िन्दगी गुज़ारने का हौसला पारऊँ। ईमानदार बने रहिए, ज़िन्दगी की आला क़दरों को पूरे कमाल के साथ अपनी ज़िन्दगी में बरतिए | मैं आपके तजरिबे से सीखूँगा और उसूलवाली ज़िन्दगी गुज़ारूँगा।

मुझे दूसरों की ख़िदमत के लायक़ बनाइए और इनसानों में मौजूद फ़र्क का एहतिराम करना सिखाइए। मैं खुले ज़ेहन और बड़े दिल की क़दरों के साथ इनसानी ज़िन्दगी की रंगा-रंगी को क़बूल कर सकूँगा।

ख़ानदानी खुशियाँ कैसे हासिल की जाएँ?

(3) बेहतर और अच्छी बातों और ज़िन्दगी के अच्छे क़िस्सों पर तवज्जोह ज़्यादा कीजिए। मुश्किल वक्तों में भी अल्लाह की रहमत से नाउम्मीद मत होइए, ताकि हर नए दिन को मैं मौक़ों की एक नई दुनिया के तौर पर देख सकूँ और बेहतर तर्ज़ें-फ़िक्र को परवान चढ़ा सकूँ।

(४) मेरी मासूम ज़िन्दगी के सारे उतार-चढ़ाव के दौरान, मुझसे बिना किसी शर्त के मुहब्बत कीजिए। मैं उस मुहब्बत को सारी इनसानियत पर लुटाऊँगा।

*१00 ख़ानदानी खुशियाँ कैसे हासिल की जाएँ?

बच्चा खाना क्‍यों नहीं खाता?

अकसर माएँ शिकायत करती हैं कि बच्चा खाता नहीं है, हालाँकि उसने अपनी उम्र के दो साल पूरे कर लिए हैं। बच्चा लगातार ही खाना खाने से - बचे तो उसकी ज़्यादातर वजह सिर्फ़ यह हो सकती है कि माँ उसे खिलाने के लिए सही तरीक़े अपना नहीं रही है, या उनके अन्दर बच्चे की नफ़सियात समझने में कमी है, या यह कि अपनी मरज़ी के मुताबिक़ अपनी पसन्द का खाना बच्चे को खिलाने पर ज़ोर है। इस मामले में जहाँ माँ की लापरवाही मुनासिब नहीं, वहीं माँ की ज़रूरत से ज़्यादा फ़िक्रमन्दी भी ठीक नहीं। माँ का रवैया सन्तुलित हो तो बच्चे के लिए खाना पसन्दीदा काम हो सकता है। कभी-कभी बच्चा खाना खा रहा हो तो मुमकिन है उसकी तबियत ठीक हो, उसे भूख लगी हो, ऐसे में बच्चे पर ज़बरदस्ती उसके लिए ज़्यादा परेशानी की वजह बन सकती है। बच्चे के खाना खाने की वजहें

बच्चे के खाना खाने की अलग-अलग वजहें हो सकती हैं। दूसरी चीज़ों की भूख मुमकिन है सिर्फ़ इस वजह से महसूस हो रही हो कि बच्चा दूध काफ़ी ज़्यादा पी लेता हो। दूध की मिक़दार कम करने और बगैर चीनीवाला दूध देने से दूसरी चीज़ों की ख़ाहिश पैदा होगी। .. खाने से पहले टाफ़ियाँ, बिस्किट और चुविंगम व्गैरा भी भूख ख़राब करने में अहम रोल अदा करते हैं। ये चीज़ें सिर्फ़ दाँतों को ख़राब करती हैं, बल्कि बच्चे को खुराक की ज़रूरी चीज़ों से भी महरूम रखती हैं।

आमतौर पर बच्चों को मीठी चीज़ें ही पसन्द होती हैं। वे फीके खाने, सब्जियाँ करा खाने से इनकार करते हैं। डेढ़-दो साल का बच्चा पहली-पहली बार बड़ों की तरह सब्ज़ियाँ वगैरा खाएगा तो उसे मुश्किल का सामना ज़रूर

ख़ानदानी खुशियाँ कैसे हासिल की जाएँ? १0]

होगा। इन तमाम चीज़ों का आदी बनने के लिए उसे कुछ वक्‍त चाहिए होगा। वह एक-दो बार इनकार करेगा लेकिन आप सब्र से उसे पेश करती रहें तो शायद दसवीं बार उसे क़बूल कर ले।

खाना खाने की शिकायत का जाएज़ा बच्चे के वज़्न या जिस्मानी हालत से लिया जा सकता है। अगर उसका वज़ून उम्र के मुताबिक़ नहीं बढ़ रहा है या वह दूसरे बच्चों से पीछे रहता है तो फिर सच में फ़िक्र की बात है।

लेकिन वज़्न ठीक बढ़ रहा हो और उसकी आमतौर पर सेहत भी ठीक हो तो फिर परेशान होने की ज़रूरत नहीं। एक साल की उम्र के बच्चों के बारे में डॉक्टरों की यह राए है कि बढ़ने के इस दौर में बच्चों का खाना खाना नार्मल बात है। इस उम्र में बच्चे को जो खाना भी पेश किया जाए वह उसे नापसन्द करता है, या अगर खाता है तो सिर्फ़ एक ही क़रिस्म का खाना हर दिन खाना चाहता है।

यहाँ यह बताना ज़रूरी है कि अपनी पैदाइश के एक साल बाद बच्चे का बढ़ना कुछ कम हो जाता है और वजह यह है कि हर एक किलो वज़्न पर कैलोरीज़ की ज़रूरत भी कम हो जाती है। इसी लिए उम्र के इस दौर में यानी एक साल बाद बच्चे का खाना कम हो जाता है। लेकिन हर माँ इस बदलाव को नहीं जानती इसलिए चाहती है कि बच्चे के खाने की मात्रा भी उम्र के साथ बढ़े। एक बच्चा अपनी पहली सालगिरह पर अपने पैदाइशी वज़्न से तीन गुना बढ़ता है (यानी तीन से नौ किलो) और इसी बच्चे को अपने एक साल के वज़्न को डबल करने में और पाँच साल चाहिए होते हैं। जिन बच्चों का वज़्न अनुपात से कम हो डॉक्टर उन्हें विटामिंस, प्रोटीन और मिनरल्ज़ से भरपूर दवाइयाँ या सप्लिमेंट्स (४०७७/०॥7०7७) देते हैं।

खानों के एक माहिर ()०४०थ/) का कहना है कि जब माँ-बाप उनके पास यह शिकायत लेकर आते हैं कि उनका बच्चा ठीक से खाना नहीं खाता तो वे बच्चे की सेहत देखते हैं। अगर वह ठीक है तो उनके मुताबिक़ यह कोई घबरानेवाली बात नहीं है। यह उम्र का एक नार्मल दौर है, भूख लगने पर वह ख़ुद खाएगा।

09 ख़ानदानी खुशियाँ कैसे हासिल की जाएँ?

कुछ करने के काम

() अपने हाथ से खाने का मौक़ा दें

रिसर्च यह कहती है कि लगभग .हर बच्चा फीका खाना यानी जिसमें मिंठास हो, खाने से इनकार करता है, लेकिन हर वक्त मीठा खाना नहीं दिया जा सकता इसका हल यह है कि उसे खाना अपने हाथों से खाने का मौक़ा दिया जाए, वह ज़रूर खाएगा, क्योंकि यह वह उम्र होती है जिसमें बच्चा हर चीज़ में 'माहिर” होना चाहता है और हर नई चीज़ सीखना चाहता है। माएँ जब यह देखती हैं कि वह कम खाता है, बिखेरता ज़्यादा है तो वे उसे ख़ुद खाने नहीं देतीं | यहाँ सब्र से काम लेना बहुत ज़रूरी है। आप उसे अपने हाथों से खाने दें, उसका हौसला बढ़ाएँ और यही वह बेहतरीन वक्त होता है जब आप उसे एक और नई डिश खिला सकती हैं।

बच्चा कहता है कि "मैं नहीं खाऊँगा'। खाने (पोषाहार) के माहिरों (0०४०ंश्ा) का इस सिलसिले में मानना यह है कि ऐसा कहकर बच्चा अपना कंट्रोल आज़माता है। माँ की कोशिश चूँकि यह होती है कि ज़बरदस्ती खिलाए और बच्चा पूरे ज़ोर से इनकार करता है। ऐसी सूरतेहाल में कोशिश यह होनी चाहिए कि खाने के वक्तों को जंग के मैदान में बदला जाए, बल्कि दोस्ताना माहौल पैदा करते हुए खाना पेश किया जाए। जब आप दस्तरख़ान सजा रही हों तो उससे बातें करें पकाई हुई डिशों के बारे में उसे बताएँ | आप ख़ुद उसका असर देखेंगी। ज़ोर-ज़बरदस्ती से खिलाई जानेवाली चीज़ें बच्चे के अन्दर लगातार नापसन्दीदगी पैदा कर सकती हैं।

आप खाना बनाने के दौरान या खाने के दौरान बच्चे की राए पूछिए कि क्‍या वह आमलेट खाएगा या उबला हुआ अण्डा, या वह आम खाएगा या सेब, चपाती खाएगा या चावल | उसे अपनी अहमियत का एहसास होगा, वह राए देगा और उसपर कुछ अमल भी करेगा।

अपने बच्चे के साथ कुछ समझौते कर लीजिए | मिसाल के तौर पर अगर उसकी प्लेट में आलू के पाँच कतले हों तो उससे पूछिए कि कितने खाएगा। अगर वह कहे कि तीन तो उसकी बात ख़ुशदिली से मान लीजिए। आप ज़रूर देखेंगे कि वह धीरे-धीरे खाने की ज़िद छोड़ रहा है।

ख़ानदानी खुशियों कैसे हासिल की जाएँ? ]05

(2) दस्तरख़ान पर साथ बिठाएँ

जब घर के सब लोग दस्तरख़ान पर बैठें तो बच्चे को भी साथ बिठाया जाए। खाना खाने का वक्त पूरी फ़ैमिली के लिए एक बहुत अच्छा वक्त होता है! उस वक्त बच्चों का भी हौसला बढ़ानां चाहिए कि वे भी खाने की मेज़ पर सबके साथ बैठें। यह मुनासिब नहीं है कि बच्चे को पहले या बाद में खिलाकर फिर किसी के हवाले कर दिया जाए और उसे दस्तरख़ान से दूर रखा जाए, ताकि बाक़ी लोग आराम से खाना खा लें। इस सूरत में माँ और दूसरे लोग आराम से खाना तो खा लेंगे लेकिन बच्चे के ज़ेहन पर उसके बाद बड़े ग़लत असर पड़ सकते है। मुमकिन है उसे बाद में भी दस्तरख़ान पर बैठना अच्छा लगे। रद्दे-अमल (प्रतिक्रिया) के तौर पर वह अपनी मनमानी करना शुरू कर दे, अलग-अलग खाने के बारे में अलग-अलग राए रखे, किसी को पसन्द और किसी को नापसन्द करने लगे। खाने-पीने और दूसरे रहन-सहन के आदाब सिखाने के लिए भी दस्तरख़ान एक अच्छी और मुनासिब जगह है।

(3) बच्चे की पसन्द का लिहाज करें

बच्चे की अपनी एक पसन्द होती है जिसकी बुनियाद पर वह एक ही चीज़ रोज़ाना खाना पसन्द करता है। मिसाल के तौर पर कोई बच्चा इडली खाना पसन्द करता है, और वह रोज़ाना यही चीज़ खाना पसन्द करेगा। बहुत सारे बच्चे चटपटी चीज़ें या गोश्त या अण्डे रोज़ाना खाना पसन्द करते हैं, जिसकी वजह से माँ-बाप में गलतफ़हमी पाई जाती है कि यह गर्म मिज़ाज रखनेवाली गिज़ा (आहार) है और यह बच्चे के लिए नुक़सानदेह है। या फिर कोई बच्चा लगभग हर रोज़ फलों में नारंगी या केला खाना पसन्द करेगा। फिर यह समझा जाता है कि इससे बच्चे को सर्दी हो जाएगी। माहिर लोग इस मामले में यह कहते हैं कि बच्चा जिन चीज़ों को पसन्द करता है उसे वे चीज़ें देनी चाहिएँ। इसकी वजह यह भी है कि उसने अभी-अभी खाना सीखा है और वह खुशी-खुशी शौक़ से खाएगा तो सेहत पर उसका अच्छा असर पड़ेगा। दूसरे यह कि बच्चा भी एक ही चीज़ रोज़ाना नहीं खा पाएगा,

जप 7 पक का ख़ानदानी बरानदानी खुशियों केसे हासिल की जाएँ?

वह खुद ही अपनी पसन्द बदल देगा, क्योंकि उसके मज़ा (स्वाद) पहचाननेवाले गुदूद (8560००७) भी बदलाव चाहेंगे। इसी तरह कोई बच्चा लगातार ब्रेड- जैम ख़ाते-खाते खुद ही उकता जाएगा। हाँ, अगर जो चीज़ वह रोज़ाना खाता है वह बहुत थोड़ी मात्रा में खाता है और वज़्न भी नहीं बढ़ता है और सेहत भी ठीक हो तो डॉक्टर से मिलना चाहिए।

.. यह बात गौर करने की है कि शायद हर माँ यह नहीं जानती कि अपने बच्चे को खाना खिलाते वकृत उसके अपने जज़बात का भी बड़ा असर पड़ता है। मिसाल के तौर पर बच्चा और ज़्यादा खाने से मना करता है तो माँ यह कहकर और ज़्यादा चावल खिलाती है कि “तुम अपनी अम्मी से बहुत मुहब्बत करते हो इसलिए ये चावल ज़रूर खाओगे |” इस तरह कहकर माँ एक ग़लत सिग्नल पेश करती है बच्चे की मरज़ी बिलकुल और ज़्यादा खाने की नहीं होती, मगर अपनी अम्मी से मुहब्बत में उसे खाना ज़रूरी हो जाता है और इस तरह उसे खाने से एक क़िस्म से नफ़रत हो जाती है। बच्चे को - खाना खिलाना भी एक फ़न है। इस फ़न में अहम बात है माँ का बरदाश्त करना और अच्छे अख़लाक़ पेश करना है। खाने को बच्चे के लिए दिलचस्प और ख़ुशगवार काम बनाना बहुत ज़रूरी है। माओं की मामूली-सी बेसब्री या गुस्सा बच्चे के ज़ेहन पर कभी-कभी बड़े नाखुशगवार असरात पैदा करते हैं। ये असरात सारी ज़िन्दगी अपना असर दिखाते हैं।

आपके बच्चे की अपनी पसन्द और नापसन्द होती है। अगर आप यह चाहेंगी कि वह आपकी पसन्द के मुताबिक़ खाए तो यह नामुमकिन है। बच्चे अकसर खानों में इस्तेमाल होनेवाली ख़ास चीज़ों की खुशबू नापसन्द करते हैं, मिसाल के तौर पर पोदीना और हरा धनिया क्गैरा। कोई भी नई डिश उसे थोड़ी मात्रा में दें, नई चीज़ खाना उसके लिए बहुत मुश्किल होता है। एक-दो दिन के गैप से फिर वही डिश उसे पेश करती रहें, वह आदी हो जाएगा। फिर ज़रूर वह पौष्टिक आहार से भरी डिशें भी खाएगा। आप अलग-अलग क़िस्म की सब्जियाँ या कोंपलवाली दालें, गोश्त करा खिलाना चाहती हैं और वह खाने से इनकार करता है तो आप यह करें कि ये चीज़ें उसके पसन्द के बरतन में पेश करें। खाने के बरतनों के मामले में भी बच्चे

ख़ानदानी खुशियाँ कैसे हासिल की जाएँ? 3095

काफ़ी हस्सास होते हैं। आजकल बाज़ार में [0५ )5॥65, 8909 89005, 890५ 70०१७ मिलते हैं, उनमें खाना बच्चों को अच्छा लगता है। सबसे उम्दा तरीक़ा यह है कि पकवान के दौरान बच्चे को अपने साथ रखें और उसे यह समझाएँ कि यह डिश उसने ख़ुद बनाई है, वह ज़रूर खाएगा।

दो साल की उम्र के बच्चे ([000[०७) फिंगर फूड (ग्रह 8000) पसन्द करते हैं। उबालकर तली हुई सब्ज़ियाँ या फल करा लम्बी-लम्बी काटकर दें। बच्चों को मिठाई, केला, चिप्स, जेली या और दूसरे जंक खानों के बजाए दूध, सूप और ताज़ा फलों से बना जूस देना चाहिए। ये चीज़ें विटामिन से भरपूर होती हैं लेकिन जूस और दूध में चीनी नहीं मिलानी चाहिए क्योंकि फलों में और दूध में कुदरती चीनी पाई जाती है। बनावटी पेय और जंक फ़ूड पूरी तरह पीष्टिक आहार से ख़ाली होते हैं लेकिन पूरी तरह उनपर पाबन्दी लगाने के बजाए किसी ख़ास मौक़े पर कुछ दिया जा सकता है, लेकिन कम मात्रा में दिया जाए।

(4) कई-कई वक्त खिलाएँ

बड़ों की तरह बच्चे कभी भी ज़ाबिते के मुताबिक़ या लगातार एक मात्रा में नहीं खा सकते | ख़ास तौर पर एक साल से तीन साल की उम्र के बच्चे तो बिलकुल भी नहीं। लेकिन आप गौर करें तो उनमें केलोरीज़ का अनुपात रोज़ाना लगभग बराबर ही होगा। बच्चे ख़ुद भी भूखा रहना पसन्द नहीं करते। उसका इज़हार वे चिड़चिड़ेपन से करते हैं, या जिन बच्चों को दूध पीने की आदत होती है वे सिर्फ़ दूध से अपना पेट भरना चाहते हैं, बढ़ती उम्र के साथ सिर्फ़ दूध नाकाफ़ी हो जाता है। दो साल की उम्र के बच्चे बड़ों के मुकाबले में /4 खाना खाते हैं, इसलिए उन्हें दिन में 5 से 6 वकृत खाना खिलाना चाहिए। माहिर लोग यह मश्वरा देते हैं कि बच्चों के खाने पर परेशान होने के बजाए एक हफ़्तावारी टाइम ट्रेबल बनाना चाहिए कि उसने किस दिन कितना खाया। अगर बच्चा तन्दुरुस्त और चुस्त है तो आप यह देखकर हैरान होंगी कि उसका खाना सामान्य है। जब दस्तरख़ान बिछा हुआ हो और ख़ानदान के लोग खाना खा रहे हों तो बच्चे सिर्फ़ प्लेट, चम्मच और

06 ख़ानदानी खुशियाँ कैसे हासिल की जाएँ?

खाने से खेलते हैं इसलिए यह ज़रूरी हो जाता है कि हर दो खानों के दरमियान उन्हें कुछ स्नेक्स भी दिए जाएँ, इस शर्त के साथ कि वे स्नेक्स आहार से पुर हों और घर में बने हों। बच्चे के खाने की क्रिस्में

बच्चे का खाना नीचे दिए गए तरीक़ों या फ़ूड ग्रुप्स में होना चाहिए- (]) निशास्तादार खाने : गेहूँ, चावल, दालें (2) प्रोटीनवाले खाने : अण्डा, गोश्त, मछली, मुर्गी (3) नमक और विटामिनवाले खाने : सब्जियाँ, फल, गहरे हरे रंग की

पत्तोंवाली सक्ष्ियाँ | (4) ताक़त देनेवाले खाने : दूध, दही, पनीर, मक्खन, घी वगैरा।

इस तरह दूध पर पूरी तरह निर्भर नहीं हुआ जा सकता। हमें यह कोशिश करनी चाहिए कि बच्चा अपने खाने से प्रोटीन, चर्बी, कार्बोहाइड्रेट, विटामिन, नमक वगैरा मुनासिब मात्रा में हासिल करे।

अगर बच्चा सब्ज़ी, तरकारी के बजाए सिर्फ़ फल पसन्द करता है तो कोई बात नहीं। फल और सब्नियाँ आहार में बराबर हैं, लेकिन जिस तरह सब्ज़ियाँ फ़ायदेमन्द हैं, जूस नहीं है। क्योंकि जूस में रेशा नहीं होता और _ शकर की मात्रा ज़्यादा होती है।

बच्चे अगर सक्षियाँ खाना पसन्द नहीं करते तो एक तरीक़ा यह है कि सब्जियों, पालक, मेथी व्गैरा को आटे के साथ गूँध लें और रोटी बनाकर दें, या गोल शक्ल की ही रोटी बनाने के बजाए रोटी को अलग-अलग शक्ल दे सकते हैं। बच्चे अलग-अलग शक्ल की रोटी पसन्द करते हैं। टमाटर साँस और फ़रूट जैम उन्हें बहुत पसन्द होता है वह उसपर फैलाकर दें या यह काम ख़ुद उनसे कराएँ। आप देखेंगी कि आपकी मेहनत रंग लाई है। सिर्फ़ खिलाना नहीं खाना सिखाना भी मक़सद हो

आप सिर्फ़ यह मत देखिए कि तमाम वकृत आप बच्चे को जो खिलाती हैं वह सेहत के लिहाज़ से कितना बेहतर है, बल्कि इस उम्र के बच्चे आज़ादी

ख़ानदानी खुशियाँ कैसे हासिल की जाएँ? [07

के साथ -खाना सीखते हैं। इस काम में आप उनकी बहुत मुहब्बत से मदद कीजिए। खाने के वक्त को सिर्फ़ इस मक़सद तक महदूद मत रखिए कि पौष्टिक आहार से भरपूर खुराक खिलाई जाए; बल्कि बच्चे का खाने की तरफ़ रुझान बढ़ाइए और शुरू ही से खाने के अल्लाह के पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल-) के तरीक़े और इस्लामी आदाब सिखाइए और बेहतरीन आदतें उसमें पैदा कीजिए

08 ख़ानदानी खुशियाँ कैसे हासिल की जाएँ?

नोउम्र लड़कियों के मसले

लड़कियों की परवरिश को हर ज़माने में ज़्यादा चैलेंजिंग काम समझा गया है। जहाँ अच्छी लड़कियाँ माँ-बाप की आँखों की ठण्डक और उनकी नेकनामी का सबब होती हैं, वहीं लड़कियों की गलतियाँ माँ-बाप के लिए ज़्यादा बड़े सदमे और बदनामी का सबब बनती हैं। ख़ास तौर से बालिग होने और नौउम्री के मरहले में लड़कियों के अन्दर हया और शर्म के पाकीज़ा जज़बात परवान चढ़ाना, फ़ितनों से उनकी हिफ़ाज़त करना, उनके लिए ज़िन्दगी का अच्छा साथी (शौहर) ढूँढ़ना, ये सब मुश्किल मरहले होते हैं। मौजूदा ज़माने में इन मरहलों की मुश्किल और बढ़ गई है। ख़ास तौर पर बड़े शहरों में और मीडिया, इंटरनेट और सोशल मीडिया के फ़ितनों के इस दौर में बच्चों की तरबियत एक मुश्किल और बहुत सख्त काम है। अल्लाह के रसूल (सल्ल.) ने लड़कियों की अच्छी तालीम तरबियत पर ख़ास खुशख़बरियाँ दी हैं। उन्होंने फ़र्माया, “जिस शख्स की दो या तीन बेटियाँ हों और वह उनकी अच्छे से परवरिश करे तो मैं (यानी अल्लाह के पैग़म्बर मुहम्मद सल्‍ल.) और वह शख्स जन्नत में इस तरह दाख़िल होंगे जिस तरह ये दो उँगलियाँ (शहादत और दरमियानी उँगलियाँ) मिली हुई हैं,'” (हदीस : तिरमिज़ी)। यह एक बड़ी ज़िम्मेदारी का काम है और हमें इसके सिलसिले में अल्लाह के सामने जवाब देना है। अल्लाह के रसूल (सल्ल.) ने यह बात भी कही है कि “अल्लाह हर ज़िम्मेदार से उसकी ज़िम्मेदारी में दी गई चीज़ों के बारे में सवाल करेगा कि उसने उनकी हिफ़ाज़त की या बरबाद किया, यहाँ तक कि आदमी से उसके घरवालों के बारे में भी सवाल करेगा। (हदीस : नसई) इससे अगले लेख में नौउम्र लड़कों के मसले और उनके हल पर बातें बताई जाएँगी। उनमें बहुत-सी बातें लड़कियों के मामले में भी सही हैं

ख़ानदानी खुशियाँ कैसे हासिल की जाएँ? 09

(लड़कियों की माएँ, उस लेख को भी पढ़ लें)। लड़कों की तरह लड़कियों की ज़िन्दगी का यह मरहला भी बालिग होने की ज़िन्दगी और उसकी ज़िम्मेदारियों के लिए तैयारी का मरहला होता है। एक मासूम बच्ची अब एक जवान औरत बन रही होती है। अल्लाह उसको उन ज़िम्मेदारियों के लिए तैयार कर रहा होता है जो उसे आगे पूरा करना है। आगे उसे एक बीवी बनना है, अपना घर सम्भालना है। उसके बच्चे होने हैं और उसे उनकी तरबियत करना है। अपनी तालीम क़ाबिलियत के लिहाज़ से दूसरे समाजी तमदूदुनी ज़िम्मदारियाँ अंजाम देनी हैं। समाज का सामना करना है। ये सब फ़र्ज़ ज़िम्मेदारियाँ जो एक औरत के साथ जुड़ी होती हैं, बहुत-सी जिस्मानी और नफ़सियाती बदलाव की माँग करती हैं | टीन एज (०७४ ७2०) के इस मरहले में लड़की इन बदलाव से गुज़रती है।

चुनाँचे लड़कों की तरह लड़कियाँ भी इस मरहले में ज़्यादा आज़ादी चाहती हैं | हमजोलियों से उनका मेलजोल और उनपर इनहिसार (निर्भरता) बढ़ जाता है। एडवेंचर और खोज-बीन में लगना लड़कियों में भी पाया जाता है। आदर्शवाद (0०७॥&7) और ख़ुद को बेहतर दिखाने की कोशिश, ताक़त और जोश का बहुत ज़्यादा होना जैसी ख़ासियतें लड़कियों में भी होती हैं। अलबत्ता कुछ मामलों में लड़कियाँ अलग भी होती हैं।

इस उम्र में लड़कियों में ज़्यादा बड़े जिस्मानी बदलाव आते हैं। कुछ हयातयाती (जैविक) बदलाव (सबसे अहम, माहवारी की शुरुआत) उनके लिए बहुत चैलेंजिंग होता है। उन जिस्मानी जैविक बदलाव के मुताबिक़ उनंके अन्दर हार्मोनल बदलाव भी आने लगते हैं। ये हार्मोम उनकी नफ़सियात पर भी गहरे असर डालते हैं। 'स्ट्रेस हार्मोन! (80855 प्र॒क्षाग07) उनके अन्दर तनाव पैदा करता है। मिज़ाज को हद से ज़्यादा हस्सास बना देता है। अगर उनको नज़रन्दाज़ किया जाए या रद्द किया जाए तो इस उम्र की लड़कियाँ यह बात हरगिज़ बरदाश्त नहीं कर सकतीं | निहायत मामूली बात पर भी उनका रद्दे-अमल निहायत शदीद होता है। नफ़सियात के एक मशहूर माहिर ने नवीं क्लास की एक लड़की के बारे में बताया है कि उसने अपना ऑनलाइन रिज़ल्ट देखा और अपनी उम्मीदों से कुछ कम ग्रेड नज़र

]॥0 ख़ानदानी खुशियाँ कैसे हासिल की जाएँ?

आया, तो इस ज़ोर से और भयानक तकलीफ़ के साथ चीखें मारना शुरू कर दीं मानो वह किसी क़॒त्ले-आम (नरसंहार) की जगह पहुँचा दी गई हो। इस उम्र की लड़कियों में इस तरह का रद्दे-अमल बहुत आम होता है।

लड़कों के मुक़ाबले में लड़कियाँ ज़्यादा आसानी से ज़्यादती का शिकार हो सकती हैं। उनसे जज़बाती फ़ायदा उठाना आसान होता जाता है। लड़के अपने जज़बात का इज़हार ख़ास तौर पर माँ-बाप के सामने नहीं करते लेकिन लड़कियाँ अपनी माँ के सामने अपने जज़बात का इज़हार करती हैं। इससे उनकी परेशानियों को समझने में मदद मिलती है। नफ़सियात के माहिर यह भी कहते हैं कि इस उम्र में लड़कों के मुक़ाबले में लड़कियाँ ज़्यादा तनाव का शिकार होती हैं। कभी-कभी सख्त तनाव उनकी सेहत बिगाड़ देता है।

लड़कों के मुक़ाबले में लड़कियों को इस मरहले में अपने बहुत-से तौर-तरीक़े बदलने पड़ते हैं। बालिग होने के बाद उनपर हिजाब वाजिब हो जाता है। घर से बाहर निकलने पर और मेल-जोल वगैरा के सिलसिले में बहुत-सी. नई बन्दिशें लागू हो जाती हैं। हँसने-बोलने, खेलने-कूदने और चलने-फिरने में भी उनको बहुत सावधानियाँ बरतनी पड़ती हैं | कुछ लड़कियों के लिए ये बदलाव.भी तनाव पैदा करते हैं।

इन हालात में माँ-बाप की और ख़ास तौर से माँ की यह ज़िम्मेदारी होती है कि वह बहुत ही सावधानी के साथ और इस उम्र की नफ़सियात को समझते हुए अपनी बेटी की मुनासिब रहनुमाई, तरबियत और उसको जज़बाती सहारा देने की कोशिश करे।

() जिस्मानी बनावट

इस उम्र में लड़की अपनी जिस्मानी बनावट को बहुत ज़्यादा अहमियत देने लगती है और अपने ज़ाहिरी हुस्न और खूबसूरती को लेकर बहुत हस्सास हो जाती है। बालिग होने पर उसके चेहरे पर निखार जाता है, आवाज़ सुरीली हो जाती है और निस्वानी खूबसूरती ज़ाहिर हो जाती है। अकसर घरों में भी लड़कियों की शक्ल सूरत को लेकर बातचीत शुरू हो जाती है। अल्लाह ने उसे अच्छी शक्ल सूरत से नवाज़ा है, तब वह उसे और

ख़ानदानी खुशियाँ कैसे हासिल की जाएँ? पा

निखारने की फ़िक्र में लगी रहती है, और अगर वह मामूली शक्ल सूरत की मालिक है तब बहुत एहसासे-कमतरी की शिकार रहती है जिसकी वजह से उसके मिज़ाज में चिड़चिड़ापन जाता है। तजरिबे से मालूम होता है कि वज़्न घटाने की दीवानगी करा जैसी बीमारियाँ आमतौर पर इसी उम्र में लड़कियों को लगती हैं। बहुत-सी लड़कियाँ अपने जिस्म को खूबसूरत बनाने के लिए भूका रहना शुरू कर देती हैं।

- माँ की ज़िम्मेदारी है कि वह नेक सीरत की अहमियत उसके ज़ेहन में:

बिठाए। उसे बताए कि इनसानी शस़्सियत की असल और हमेशा रहनेवाली खूबसूरती किरदार और रवैये की खूबसूरती है। उसे यह भी बताए कि अख़बारों और मेगज़ीनों में जो मॉडलों की तस्वीरें छपती हैं, उनमें फोटू- शॉपिंग के कमाल भी शामिल होते हैं।

इसके साथ यह भी ज़रूरी है कि उसके अन्दर अपनी सूरत, शक्ल और जिस्म को लेकर भरोसा पैदा हो | माँ की ज़िम्मेदारी है कि अपनी लड़की की शक्ल सूरत के अच्छे पहलुओं की दिल खोलकर पहचान करे। उसके अन्दर यह भरोसा पैदा करे कि वह एक दिलकश और आकर्षक शख्सियत की मालिक है। अगर उसके अन्दर कोई कमी है तो उसे बताया जाए कि अल्लाह ने दुनिया में किसी को पूरा और कमियों से पाक नहीं बनाया है। चाँद में भी दाग़ हैं| खूबसूरत-से-खूबसूरत औरतों में भी कुछ-न-कुछ कमज़ोरी ज़रूर होती है उसके अच्छे पहलुओं को उभारा जाए। बनने-सँवरने में और कपड़ों कौरा के मुनासिब चुनाव में उसकी मदद की जाए।

इस तारीफ़ की ज़रूरत जहाँ उसके अन्दर ख़ुद-एतिमादी पैदा करने के लिए है वहीं उसको ज़्यादती से बचाने के लिए भी है। लड़की इस उम्र में अपने हुस्न जमाल की तारीफ़ प्रशंसा की भूकी होती है। माएँ और घर के लोग तारीफ़ करें और उन्हें तारीफ़ क्लास के किसी लड़के से मिले तो फिर वह लड़का असरनन्‍्दाज़ होने लगता है। यह ज़माना जिंसी हार्मोज़ के सैलाब का ज़माना होता है, ऐसे में अगर खूबसूरती की तारीफ़ की फ़ितरी खाहिश पूरी हो रही हो तो अजनबी लड़के की पसन्दीदगी चाहत की एक नज़र लड़कियों को दीवाना बना देती है।

2 ख़ांनदानी खुशियाँ कैसे हासिल की जाएँ?

(2) खुद-एतिमादी और इज्जते-नफ़्स

इस उम्र में लड़कियों की बड़ी ज़रूरत यह होती है कि उनके अन्दर ख़ुद-एतिमादी और इज़्ज़ते-नफूस पैदा की जाए। उनको यह यक़ीन हो कि वे अच्छी शस़्सियत की मालिक हैं और अपने माँ-बाप और ख़ानदान के लिए इज़्ज़त और फ़ख्ब की वजह हैं। यह एतिमाद माँ-बाप और भाई-बहनों की तरफ़ से तारीफ़ वाहवाही, इज़्ज़त बढ़ाने और मुहब्बत से पैदा होता है। उसकी सलाहियतों की क़द्र कीजिए उसकी शख़्सियत के अच्छे पहलुओं को तलाश कीजिए और उसे ज़ाहिर कीजिए। अल्लाह ने इस दुनिया में हर इनसान को अलग और अनोखा पैदा किया है। अगर आप्रके पड़ोसी की बच्ची क्लास में सबसे ज़्यादा नम्बर लाती है तो वह आपकी बेटी की तरह खूबसूरत पेंटिंग नहीं कर सकती अब अगर आप रात-दिन पड़ोसी से उसका मुवाज़ना (तुलना) करती रहीं तो वह इज़्ज़ते-नफ़्स और ख़ुद-एतिमादी से महरूम हो जाएगी। पेंटिंग की जो इतनी बड़ी सलाहियत अल्लाह ने उसको दी है, इससे उसका दिल उचाट हो जाएगा। वह तनाव का शिकार हो जाएगी और कल किसी ने उसकी पेंटिंग की बहुत ज़्यादा तारीफ़ कर दी तो ख़ुदा करे उसकी मुहब्बत में गिरफ्तार हो जाएगी। समझदार माएँ अपनी बेटियों के अच्छे पहलुओं को उजागर करती हैं। उन्हें भरपूर इज़्ज़त, एहतिराम और मुहब्बत देती हैं। ऐसी माओं की बेटियाँ खुद-एतिमादी और इज़्ज़ते-नफ़्स से मालामाल होती हैं और उनको शीशे में उतारना अजनबियों के लिए आसान नहीं होता।

लड़कियों की इज़्ज़ते-नफ़्स पर सख्त चोट उस वक्त भी पड़ती है जब घरों में बेटों और बेटियों के बीच फ़र्क किया जाता है। अच्छे खाने, अच्छे कपड़ों, अच्छी और मँहगी पढ़ाई वगैरा पर पहला और ज़्यादा हक़ बेटों का समझा जाता है। इस्लाम ने इस तसव्वुर पर सख्त चोट लगाई है। अल्लाह के पैगम्बर (सल्ल-) ने एक और हदीस में बेटियों की परवरिश पर जन्नत की ख़ुशख़बरी के लिए यह शर्त भी बयान की है कि बेटियों पर बेटे को तरजीह दी जाए। “जिस शख्स की बेटी हो और उसने उसकी तौहीन नहीं की, उसे ज़िन्दा दफ़न किया और लड़कों को उसपर तरजीह दी, अल्लाह उसे जन्नत में दाख़िल करेगा |” (हदीस : मुसनदे-अहमद)

ख़ानदानी खुशियाँ कैसे हासिल की जाएँ? ६8

(3) शर्म हया और इस्लामी रहन-सहन

इस उम्र में फ़ितरी तौर पर शर्म हया के एहसासात परवान चढ़ने लगते हैं। यह औरतों की हिफ़ाज़त का फ़ितरी इन्तिज़ाम है, जो कायनात के रब ने किया है। यह बड़ी बदक़िस्मती की बात है कि नई तहज़ीब इस फ़ितरत को मिटाकर फ़ितरी घेराबन्दी को ख़त्म करने की कोशिश में है। माँ-बाप की यह भी ज़िम्मेदारी है कि वे अपनी बच्चियों में फ़ितरी हया को परवान चढ़ाएँ, इज़़्त आबरू और पाकदामनी के सिलसिले में हस्सास बनाएँ! निगाहों की हिफ़ाज़त करना सिखाएँ। जिस बच्ची की अभी-अभी जवानी शुरू हो रही है, उसे अपने ऊपर उठनेवाली हर नज़र की पहचान नहीं होती है। यह तमीज़ करना उसे सिखाएँ।

अल्लाह का यह औरतों पर बहुत बड़ा एहसान है कि उसने इस्लामी शरीअत की सूरत में एक बहुत ताक़तवर हिफ़ाज़ती क़िला हमें दिया है। बालिग होते ही लड़की पर तमाम इस्लामी अहकाम लागू हो जाते हैं। उन अहकाम का शुऊर उसके अन्दर पैदा करना और उनपर अमल कराना, यह भी माँ की बहुत अहम ज़िम्मेदारी है। लड़की पर हिजाब फ़र्ज़ हो गया है। सतर के अहकाम फ़र्ज़ हो गए हैं। उसके चचा-ज़ाद, मामू-ज़ाद, ख़ालू, फूफा, पड़ोसी, टीचर्स कौरा अब उसके लिए नामहरम मर्द हैं। उनसे अकेलेः में मुलाक़ात जाइज़ नहीं | हाथ मिलाना या किसी भी क़िस्म की जिस्मानी छुवन जाइज़ नहीं। बन-सँवरकर और ख़ुशबू लगा के उनके सामने जाना जाइज़ नहीं। बिना ज़रूरत बेतकल्लुफ़ हँसी-मज़ाक़ और मिलना-जुलना जाइज़ नहीं। अगर माएँ शुरुआती उम्र ही से इन इस्लामी अहकाम की पाबन्दी कराना शुरू कर.दें तो लड़कियों के ग़लत रास्ते पर जाने का इमकान बहुत कम रह जाता है।

मेरे पास जो केस आते हैं उनकी बुनियाद पर मैं कह सकती हूँ कि क़रीबी रिश्तेदारों के ज़रिए बच्चियों के साथ ज़्यादती अब मुस्लिम सोसाइटी में भी बहुत ज़्यादा बढ़ चुकी है। माँ-बाप यह समझते हैं कि हम निहायत शरीफ़ और दीनदार लोग हैं। हमारे घरों में ऐसा नहीं हो सकता | लेकिन वे

है. ]]4. ख़ानदानी खुशियाँ कैसे हासिल की जाएँ?

यह महसूस नहीं करते कि अब घरों की रिवायतों की बन्दिश कमज़ोर होती जा रही है। मीडिया के तूफ़ान की लहर से कोई घर बचा हुआ नहीं है और शैतान हर एक के साथ लगा हुआ है।

जो बच्चियाँ मिले-जुले (०7 ख़ानदानों में रहती हैं, वहाँ माँ-बाप को बहुत सावधानी बरतनी पड़ती है। परदे का हुक्म और उसकी अहमियत को वाज़ेह करें। एक ही घर में साथ रहनेवाले गैर-महरम मर्दों और लड़कों से मिलने और बात करने की हदें आदाब की तालीम दें। क़रीबी रिश्तेदारों के अलावा घर में काम करनेवाले नौकर, ड्राइवर, स्कूल-कॉलेज ले जानेवाले ऑटो-ड्राइवर, ट्यूशन पढ़ानेवाले टीचर्स, कज़िन, इन सबके सिलसिले में सावधानी ज़रूरी है। किसी पर बिना किसी वजह के शक भी नहीं करना चाहिए। बस सबके सिलसिले में शरीअत के अहकाम की पाबन्दी करना काफ़ी है।

मैंने यह बात भी नोट की है कि बहुत-से घरानों में बड़ी और शादीशुदा औरतें तो इस्लामी अहकाम पर अमल करती हैं लेकिन इन नौउम्र बच्चियों के सिलसिले में यह समझा जाता है कि ये तो अभी बच्चियाँ हैं। इसी तरह कुछ घरानों में बच्चियाँ, नौजवान लड़कों से तो सावधानी के साथ दूरी रखती हैं लेकिन बड़ी उम्र के मर्दों के सिलसिले में यह समझा जाता है कि बच्ची, उनकी बेटी की तरह है। ये सब निहायत नुक़सानदेह रवैये हैं। इस्लामी शरीअत ऐसा कोई फ़र्क़ नहीं करती।

महरम मर्दों के साथ भी शर्म हया के मुनासिब तक़ाज़ों को निभाते हुए ज़रूरी फ़ासिला रखना चाहिए

बच्चियों के साथ जिंसी ज़्यादतियाँ इस वक्त हमारे मुल्क में एक बड़ा मसला बनता जा रहा है। इस तरह की ज़्यादतियाँ बच्चियों की नफ़सियात पर बहुत बुरा असर डालती हैं। ज़िन्दगी-भर इसके बुरे असर से वे खुद को निकाल नहीं पातीं। ये ज़्यादतियाँ मामूली दरजे की भी हो सकती हैं। किसी क़रीबी रिश्तेदार की तरफ़ से एक ग़लत टच, गन्दी निगाह, गन्दी बात या गन्दा इशारा लड़की को तबाह करके रख देता है। वह अन्दर से टूट जाती

ख़ानदानी खुशियाँ कैसे हासिल की जाएँ? ]75

है। दुनिया के सारे मर्दों से नफ़रत करने लगती है। जुर्म के एहसास और एहसासे-कमतरी की शिकार हो जाती है। माँ-बाप को पता ही नहीं चलता कि ऐसा कोई हादिसा पेश आया है और मासूम बच्ची के अन्दर क्रियामत मची रहती है। चालीस साल और पचास साल की उम्र की सख्त नफ़सियाती बीमार औरतों के मसले की जड़ को समझने की कोशिश की जाती है, तब पता चलता है कि उनके बचपन की किसी ऐसी घटना की नाख़ुशगवार याद ने उनकी सारी ज़िन्दगी को तकलीफ़देह बना दिया। बेहयाई के मौजूदा सैलाब में अपनी बच्चियों को इस आफ़त से बचाना हर माँ की सबसे अहम ज़िम्मेदारियों में शामिल है। (4) दोस्तियाँ और इंटरनेट

माँ को अपनी बेटी की तमाम सहेलियों के बारे में पूरी मालूमात होनी चाहिए, और इसकी भी कोशिश करनी चाहिए कि आप उसकी सहेलियों की भी दोस्त बनें और उनपर भी गैर-महसूस तरीक़े से असरन्दाज़ हों | बेटी की सहेलियों को घर पर बुलाना, उनकी महफ़िल में कुछ मिनट बैठ जाना, उनके साथ खाना-पीना और उनको तोहफ़े देना, उनकी कामयाबियों पर जश्न मनाना, उनको उनके नामों के साथ याद रखना, अच्छे कामों पर उनकी तारीफ़ करना, इस तरह के हल्के-फुल्के कामों के ज़रिए आप यह मक़सद हासिल कर सकती हैं।

इस वक्त एक बड़ा मसला इंटरनेट और सोशल मीडिया की दोस्तियों का है। शुरू में ।8 साल से कम उम्र बच्चों को सोशल मीडिया की साइट्स अकाउंट खोलने की इजाज़त नहीं देती थी। अब अकसर साइट्स ने घटाकर यह उम्र 8 साल कर दी है। लेकिन बेहतर यही है कि कम-से-कम हाई स्कूल की पढ़ाई होने तक बच्चे सोशल मीडिया सेः दूर ही रहें और उसके बाद भी सोशल मीडिया पर उनकी सरगर्मियाँ, ख़ास तौर पर दोस्तियाँ माँ-बाप की निगाहों में रहें। अगर आपकी बेटी इंटरनेट इस्तेमाल करती है तो आप उसकी ज़रूरी तरबियत ख़ुद भी हासिल करें। उसके नेटवर्क में शामिल हों और उसकी मुनासिब रहनुमाई करती रहें।

6 ख़ानदानी खुशियाँ कैसे हासिल की जाएँ?

(5) सेहतमन्द काम

इस उम्र में अपनी बेटी को सेहतमन्द कामों की तरफ़ ध्यान दिलाइए। पेंटिंग, पेड़ लगाना, लेख लिखना, शायरी, किताबें पढ़ना, सिलाई, खाना पकाना, वगैरा जैसे काम उसको लगाए रखेंगे। उसके हार्मोज़ को कंट्रोल में रखेंगे, तनाव कम करेंगे, गलत रुझानों की तरफ़ उसको जाने नहीं देंगे और इन कामों की वजह से वह खूब काम करनेवाली और सरगर्म रह सकेगी और उसकी और ज़्यादा ताक़त का इस्तेमाल हो सकेगा अगर इन कामों में आप भी उसके साथ शरीक हो जाएँ तो इससे आपके साथ उसका ताल्लुक़ और बेतकल्लुफ़ी भी मज़बूत होगी।

सबसे बेहतर काम यह है कि उसे दीनी तहरीकी सरगर्मियों में खूब लगाएँ। जी.आई:ओ. जैसी तंज़ीमों से जोड़िए इससे ऊपर दिए गए फ़ायदे भी हासिल होंगे और उसको अच्छी और पाकीज़ा सोहबत (007) भी मिलेगी। उसकी सीरत और अख़लाक़ भी निखरेंगे और दीन के काम की बरकत से “इन शाअल्लाह” वह हर आफ़त और फ़ितने से महफ़ूज़ रहेगी।

नौउम्री से ही अकसर घरानों में बच्ची के सामने उसके रिश्ते और शादी की बातें शुरू हो जाती हैं। सब लोग उसके रिश्ते को लेकर बेपनाह फ़िक्रमन्दी ज़ाहिर करना शुरू कर देते हैं। कुछ माँ-बाप जहेज़ और शादी के ख़र्चों कौरा का रोना भी शुरू कर देते हैं। ये सब चीज़ें लड़की की नफ़सियात पर ख़राब असर डालती हैं उसकी इज़्ज़ते-नफ्स पर चोट लगती है। वह ख़ुद को माँ-बाप पर बोझ महसूस करने लगती है। शादी के सिवा, उसे अपना कोई और काम नज़र नहीं आता। कुछ लड़कियों में यह रवैया शादी और रिश्तों के सिलसिले में सख्त रद्दे-अमल, विरोध और ग़लत रुझान भी पैदा कर देता है। इस उम्र में उसकी तालीम पर ध्यान दीजिए उसे भी अपनी तालीम और सलाहियत को बढ़ाने पर ध्यान देने का मौक़ा दीजिए | शादी की फ़रिक्र ज़रूर कीजिए लेकिन रात-दिन उसके सामने इस विषय को छेड़े रखना ज़रूरी नहीं है।

ख़ानदानी खुशियाँ कैसे हासिल की जाएँ? पाए

(6) दोस्त और रोल मॉडल बनिए

बच्चियाँ बहुत कुछ अपनी माँ से सीखती हैं। नौजवान बच्ची बहुत गहराई से अपनी माँ को देखती रहती है, इसलिए सबसे पहली ज़रूरत इस बात की है कि माँ खुद परदे का एहतिमाम करे, महरम और गैर-महरम रिश्तों को उसूली तौर पर निभाण। नमाज़ और दूसरी फ़र्ज़ इबादतों की पाबन्दी करे। शौहर और दूसरे ख़ानदानवालों से अच्छे तरीक़े से पेश आए। ज़्यादा इमकान यही है कि आपकी बच्ची अगले घर जाकर जो बर्ताव करेगी वह उसी बरताव' की तस्वीर होगी जो उसकी माँ अपने घर में करती रही. है।

अगर वह आपसे सही तरबियत हासिल करेगी तो आप ही का नाम रौशन करेगी। इसलिए ज़रूरी है कि जो कुछ सिफ़ात आप अपनी बेटी के अन्दर देखना चाहती हैं, वे अपने अन्दर भी पैदा करें। अगर आप चाहती हैं कि आपकी बेटी निहायत बाहया हो तो आपको ख़ुद इस मामले में बहुत हस्सास होना पड़ेगा। अगर आप चाहती हैं कि वह हिजाब की सख्ती से पाबन्दी करे और क़रीबी रिश्तेदारों से भी मुनासिब दूरी बनाए रखे तो यह उसी वक्त मुमकिन है जब आप ख़ुद भी ऐसा करें।

इसी तरह माँ की यह कोशिश होनी चाहिए कि वह अपनी बच्ची की सबसे बेहतरीन और सबसे बेतकल्लुफ़ दोस्त बने इस उम्र में लड़कियों को बहुत-सी परेशानियाँ होती हैं। अपने जिस्म को लेकर स्कूल-कॉलेज में और दूसरी जगहों पर लोगों के रवैयों को लेकर, अपने बदलते हुए जज़बात एहसासात को लेकर उसके ज़ेहन में बहुत-सी उलझनें और सवालात होते हैं। माँ के साथ उसका रिश्ता इतना बेतकल्लुफ़ होना चाहिए कि वह उन सब सवालों को बिना किसी झिझक के आपके सामने पेश कर सके और आपसे उसका हल मालूम कर सके।

स्कूलों और कॉलेजों में और घरों के बाहर आमतौर पर लड़कियों को छेड़छाड़ के मसले का सामना करना पड़ता है। अकसर मसला बहुत मामूली होता है लेकिन लड़कियाँ उसका गहरा असर क़बूल करती हैं। अगर माँ से बेतकल्लुफ़ हो तो वह अपना मसला बयान करती है और माँ उसे हल करके

8 ख़ानदानी खुशियाँ कैसे हासिल की जाएँ?

इत्मीनान दिला देती है। लेकिन यह बेतकल्लुफ़ी हो तो इस मसले के लिए भी लड़की ख़ुद को ज़िम्मेदार समझने लगती है। उसे हल सुझाई नहीं देता और वह सख्त तनाव और उलझन की शिकार हो जाती है।

कुछ माएँ ऐसे विषयों पर अपनी बेटियों के साथ बात करते हुए झिझकती हैं। इसके नतीजे में वे अपनी बेटी के साथ बेतकल्लुफ़ दोस्ती का रिश्ता क़ायम नहीं रख पातीं | ऐसी माओं को बच्चियाँ भी कुछ नहीं बताती यह सूरतेहाल कभी-कभी बहुत ख़तरनाक होती है। इसके नतीजे में माओं को अपनी बच्चियों के हालात मालूम ही नहीं होते और मालूम होते हैं तो उस वक्त जब पानी सिर से ऊपर हो जाता है।

बेतकल्लुफ़ दोस्ती की एक बड़ी ज़रूरत यह है कि माएँ अपनी बच्चियों के साथ क्वालिटी टाइम बिताएँ। उनके साथ एक जैसी दिलचस्पियों के मामलों पर बात करें | इसके लिए रोज़ाना वक्त निकालें | उनके कामों और दिलचस्पियों में ख़ुद भी दिलचस्पी लें

ज़रूरत इस बात की है कि मौजूदा घिनौने समाज में लड़कियों की तरबियत ज़िम्मेदारी के जिस एहसास का तक़ाज़ा करती है, वह हम अपने अन्दर पैदा करें इस सिलसिले की फ़ायदेमन्द किताबों को पढ़ें | तरबियती प्रोग्रामों में शरीक हों। ज़रूरत हो तो अच्छी काउंसलरों से मश्वरा लेने में झिझक महसूस करें। याद रखें कि नौउमग्नी के इन